Rulers of Bastar

विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारियों के लिए मिले सामग्रियों की तमाम जानकारियां इकठ्ठा करने के बाद जो निकल आया है उसे मैने एक जगह समेटने का प्रयास किया है । प्रस्तुत ब्लाॅग में दी गई ज्यादातर आंकडे व जानकारियों स्थानीय साहित्यकार, लेखक और विचारकों के हैं । जिसे मैने लिपि बद्ध की है। जैसे पं. केदारनाथ ठाकुर, रूद्रनारायण पानीग्राही जैसे लेखकों ने अपने लेखों में जो प्रमाणिक जानकारी दी है उसी के आधार पर यह आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।

बस्तर को बस्तर ही क्यों कहा जाता है?

बस्तर का इतिहास जानना हो तो उसके मुख्य स्रोतों पर अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है। इनमें अभिलेख और शिलालेख हैं जो बस्तर के इतिहास के साक्ष्य बने हैं ये बस्तर में प्राय सभी जगह प्राप्त हुए हैं । Danteshwari Temple Bastarगूगल में केवल बस्तर लिखने मात्र से बस्तर के संबध में जो जानकारी मिलती है। वह मुझे नाकाफी लगी। इसीलिए मैने सोचा जो इतिहासकार है उनकी रचनाओं को जिला ग्रंथालय और दूसरे सो्रतों से खंगाला जाए और आप तक पहुँचाया जाए ,  तो जो निचोड़ निकलकर आया है उसे आपसे बांटना जरूरी समझा । तो शुरू करते हैं इसके नामकरण को लेकर कि बस्तर को बस्तर ही क्यों कहा जाता है।

क्यों कहते हैं इसे बस्तर ?

इसके पीछे कुछ कहांनियां ही निकल कर आई हैं एक कहानी के अनुसार चूंकि बांस के नीचे लोग निवास करते थे । तो लोगों को बांस-तल कहा जाने लगा और आगे चलकर यह शब्द बस्तर बन गया । जबकि दूसरी कहानी में यह सुनने में आती है जब देवी दंतेश्वरी को यह ज्ञात हुआ कि काकतीय राजा उनकी शरण में आया तो देवी ने राजा से कहा कि वह आगे आगे चले देवी खुद राजा का अनुशरण करेंगी। और मेरी घुंघरूओं की आवाज से मेरी मौजूदगी का पता चलेगा। मगर पीछे मुड़कर न देखेअन्यथा वह वहीं स्थिर हो जाएंगी। और यही हुआ । शंखनी-डंखनी नदी के संगम पर रेत में देवी के घुघरूओं पर रेत आ गया और घंघरू बजने बंद हो गए। तो राजा ने पीछे मुड़कर ये देखने की कोशिश की कि देवी है या नहीं और फिर देवी वहीं स्थिर हो गयीं और फिर देवी ने अपने वस्त्र फैला दिए जो विशाल भूभाग बन गए। यही भू-भाग वस्त्र और आगे चलकर बस्तर कहलाने लगा। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि विशाल भूभाग का विस्तार होने के कारण यह विस्तार बस्तर कहलाने लगा।
बस्तर की राजधानियां

चक्रकोट के प्रथम काकतीय राजा अन्नमदेव के समय से ही बस्तर की राजधानियां बदलती रहीं । पहली राजधानी कुछ समय तक बारसूर में थी। वहाँ से दंतेवाड़ा और फिर मधोता राजधानी बनी ।

फिर कुरूसपाल, राजपुर और बड़े डोंगर आदि से होकर बस्तर इसकी राजधानी स्थिर हो गई। सन 1703 में दिक्कपालदेव के समय चक्रकोट से बस्तर में राजधानी बनायी गई। दलपत देव तक बस्तर यहाँ की राजधानी थी। और 1772 में यह राजधानी जगतुगुड़ा यानि जगदलुपर आ गई। क्योंकि जगतु ने महाराजा से ये गुहार लगायी थी कि उसके कबीले को जंगली जानवरों से मुक्त करा दें । तो उस सरदार के नाम से यह जगतुगुड़ा जगदलपुर बन गया । – कहानी जैसे भी हो – है न मजेदार

अन्नमदेव (1324 से 69) तक के बाद काकतिय राजाओं के नाम जिन्होंने बस्तर में शासन किया

2. हमीर देव (1369-1410)
3. भैरव देव (1410 – 68)
4. पुरूषोत्तमदेव (1468- 1534)
5. जयदेव सिंह (1534-58)
6. नरसिंह देव (1558-62)
7. प्रतापराजदेव ( 1602 -25)
8. जगदीशराजदेव (1625-39)
9. वीरनारायण देव (1639-54)
10. वीरसिंह देव (1654-80)
11. दिक्पाल देव (1680-1709)
12. राजपाल देव (1709-21)
13. चंदेलमामा (1721-31) ये चंदेल वंश के राज थे
14. दलपत देव (1731-74)
15. अजमेरसिंह (1774-77)

भोंसलों के अधीन राजा दरियावदेव के समय बस्तर भोंसलों के अधीन 1780 में करदराज्य बन गया था और 1853 तक मराठा भोंसलों के अधीनता में निम्मनलिखित काकतीय राजा हुए ।

16. दरियावदेव (1777- 1800)
18. भूपाल देव (1842-53)
फिर ब्रिटिश राज में ब्रिटिश अधीनता स्वीकार करने वाले काकतीय राजाओं के नाम इस प्रकार हैं
19 भैरमदेव (1853-91)
20. रूद्रप्रताप देव (1891-1921)
21. महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921-36) जिनके नाम से जिला अस्पताल की स्थापना जगदलपुर में हुई
22. प्रवीर चंद भंजदेव (1936-47)

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1948में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया । आजादी के बाद भारत में काकतीय राजाओं के नाम इस प्रकार हैं जिन्हें बस्तर की जनता श्रद्ध पूर्वक राजा मानती है।

23. प्रवीरचंन्द्र भंजदेव (1947-61)
24. विजय चंन्द्र भंजदेव (1961-69)
25. भरतचन्द्र भंजदेव (1969-96)
26. कमलचंन्द्र भंजदेव (1997 से अब तक )

अन्नमदेव (1324 से 69)

Jaggnath Temple
Jagganath Temple Jagdalpur

1324 से 1780 तक काकतीय राजाओं ने बस्तर में राज किया । अन्नमदेव ने बारसूर में काकतीय वंश की स्थापना के पश्चात् 1936 तक इसकी 20 पीढ़ियों ने 613 वर्षों तक राज किया । जानते हैं बस्तर के महाराजाओं और उनके जीवन चक्र के बारे में ,अन्नमदेव दंतेवाड़ा अभिलेख में अन्नमदेव को अन्नमराज कहा गा है । जो प्रतापरूद्रदेव का छोटा भाई था। अन्नमदेव 1324 में वारंगल छोड़कर बस्तर पहुँचा । वारंगल अन्नमदेव को क्यों छोड़ना पड़ा इस बारे में इतिहास कारों में अलग-अलग विचार हैं । इतिहासकारों का कहना है कि वारंगल में होने वाले लगातार मुस्लिम आक्रमणों के कारण अन्नमदेव वारंगल छोड़कर बीजापुर के रास्ते से बस्तर आए और छोटे छोटे राज्यों जीतकर यहाँ के अधिपति बन गए। जिस समय वे बस्तर के राजा बने उस समय उनकी आयु महज 32 वर्ष थी। उसकी पत्नि का नाम सोनकुमर चंदेली था। एक साल बारसूर में रहने के बाद राजा अन्नमदेव ने अपनी राजधानी दंतेवाड़ा बना ली। अन्नमदेव के बाद बस्तर के राजा अपने आपको चंद्रवंशी कहलाने लगे। हल्बी भतरी लोकगीतों में अन्नमदेव को चालकी बंस राजा कहा है।

33 वर्ष की उम्र में हमीर देव ने बस्तर की सत्ता संभाली। हमीर देव अन्नमदेव के उत्तराधिकारी हमीरदेव को हमीरूदेव या एमीराजदेव भी कहा गया है। हमीर देव के बारे में विस्तृत जानकारी उड़िसा के इतिहास से भी प्रापत होती है।

भैरवदेव (1410 – 68)

जयरजदेव तथा भैरवदेव एक ही शासक के नाम है। इनकी दो रानियां थी। एक मेघई अरिचकेलिन अथवा मेघावती आखेट विद्या में निपुण थी, जिसकी स्मृति चिन्ह मेघी साड़ी, मेघई गोहड़ी प्रभृति (शकटिका )आज भी बस्तर में है।

पुरूषोत्तम देव (1468- 1534)

 

भेरवदेव के पुत्र पुरूषेत्तमदेव ने 25 वर्ष की उम्र में बस्तर के राजा बने । रानी का नाम कंचनकुवरि बघेलिन था ।
कहा जाता है। कि पुरूषोत्तम पेट के बल रेंगते हुए वे जगन्नाथ पुरी पहुँचे और भगवान को रत्नाभूषण आदि की भेंट चढ़ाई । पूरी के राज ने पुरूषोत्तम देव का स्वागत किया और राजा की वापसी के समय सोलह पहियों वाला रथ प्रदान कर उन्हें रथपति की उपाधि दी । लौटकर राजा ने बस्तर में रथयात्रा की शुरूआत की । यह पर्व ही बस्तर में गोंचा के रूप में मनाया जाता है।पुरूषोत्तम देव ने अपनी राजधानी मघोता छोडकर बस्तर में अपनी राजधानी बनाई।

जययसिंह देव (1534-58)

पुरूषोत्तमदेव का पुत्र जयसिंहदेव या जैसिंदेव 24 साल की अवस्था में राजगद्दी सम्भाली। उनकी पत्नि का नाम चंद्रकँवर बघेलिन था।
वैसे ही नरसिंहदेव ने 23 वर्ष की अवस्था में बस्तर के महाराजा बने। उनकी रानी बड़ी उदार मनोवृत्ति की थी। उसने बस्तर में अनेक तालाबों का निर्माण किया था।

प्रतापराज देव ( 1602 -25)

प्रतापराज देव के बारे में चर्चा करते हैं वे भी बड़े प्रतापी राजा थे। गोलकुण्डा के मुहम्मद कुल कुतुबशाह की सेना ने बस्तर पर आक्रमण किया था । कुतुब शाह की सेना बुरी तरह से हार गई । फिर कुतुबशाह अहमद नगर के मलिकंबर की मदद से बस्तर रियासत को परेशान करने लगा । उसने जैपुर नरेश की सहायता से जैपुर से ले बस्तर को कुछ क्षेत्रों में कब्जा जमाने में कामयाबी भी मिली ।

 

राजा रूद्रपताप देव को समर्पित यह भवन 1931 में बना है जिसे महारानी प्रफुल्ल देवी के कार्यकाल में बनवाया गया था । पं केदारनाथ ठाकुर ने अपनी निजी पुस्तकालय की पुस्तकें आम जनता के लिए इस पुस्तकालय को समर्पित कर दी थी।
(साभार- जिला प्रशासन द्वारा प्रकाशित पुस्तक – विरासत जगदलपुर की)

जगदीश राजदेव (1625-39) और वीरनारायण देव (1639-54)

इनके समय में भी गोकुण्डा के अब्दुल्ला कुतुबशाह द्वारा जैपुर की तरफ से बस्तर में कई आक्रमण हुए। मगर वे सभी असफल हुए। और मुगल इसके बाद बस्तर में कभी भी आक्रमण करने की हिम्मत नहीं जुटा सके। और बस्तर हमेशा से मुगलों की पहुँच से दूर रहा।

वीर सिंह देव (1654-80)

ये भी बड़ा ही पराक्रमी राजा था। जब वीरसिंह ने बस्तर की बागडोर संभाली तो उसकी उम्र केवल 12 वर्ष की थी। उसकी रानी का नाम बदनकुंवर चंदेलिन था। राजा वीरसिंहदेव बड़ा उदार और धर्मिक प्रवृत्ति का था। उसने उदारता का अभूतपूर्व परिचय दिया। उसने अपने शासन काल में राजपुर स्थित किले का निर्माण कराया।

दिक्पालदेव (1680-1709)

1703 में दिक्पाल देव के समय बस्तर राजधानी बनी और राजपाल देव उसके बेटे का नाम था जिसने (1709 से 21 )तक शासन किया ।

राजपाल देव (1709 से 21 )

रायपुर के महंत घासीदास-स्मारक संगहालय में रखे बस्तर के राजवंश से जुड़ी जानकारी मिलती है जो एक ताम्रपत्र में है। इससे पता चलता है कि राजा मणिकेश्वरी देवी का भक्त था और प्रौढ़प्रताप-चक्रवर्ती की उपाधि उसे मिली थी।

कौन हैं चंदेल मामा

यह राजपाल देव की पत्नि के भाई का नाम था। उसकी दो पत्नियां थीं एक का नाम था बघेलिन और दूसरी चंन्देलिन बघेलिन के पुत्र दखिनसिंह था तो चंन्दलिन का पुत्र का नाम दलपतदेव और प्रतापसिंह था। राजपाल देव की मृत्यु के बाद राजकुमारों के मामा ने राजसताा हथिया ली और 10 सालों तक शासन किया। रक्षा बंधन के मौके पर दलपत देव राखी का नग लेकर दरबार में गया और चंदेल मामा की हत्या कर दी।
और दलपत देव ने अपना राज इस प्रकार वापस लिया । उसके शासन में बस्तर में मराठों का आक्रमण हुआ। 1707 में मराठा सेना ने नीलू पण्डित या नीलू पंत के नेतृत्व में बस्तर में आक्रमण किया । मगर वे सफल नहीं हो सके। दूसरे आक्रमण में बस्तर की सेना की हार हुई । मगर दलपत देव ने मराठों की अधीनता नहीं मानी। और वे जानबचाकर भाग गए

फिर चालुक्य शासन पर चंदेल मामा (चंदेल वंश 1721-31) का अधिकार हो गया जो कुछ समय तक ही था।

चंदेलमामा (1721-31) चंदेल मामा के बस्तर की बागडोर सम्भालते ही काकतीय वंषावली की कड़ी टूट गई । ये चंदेल वंश के राजा थे।
दरअसल राजपाल देव की दो पत्नियां थीं एक चंदेलिन और दूसरी बघेलिन । बघेलिन रानी के पुत्र दखिनसिंह तथा चंद्रलिन रानी के पुत्र दलपतदेव व प्रतापसिंह थे। राजपाल देव की मौत के बाद चंदेलिन रानी के भाई यानि राजकुमार के मामा (चंदेलमामा) ने बस्तर की सत्ता अपने कब्जे में कर लिया । बस्तर के इतिहास में वंश परिवर्तन की यह पहली घटना थी । और सत्ता चालुक्य वंश के हाथों में चला गया। चंदेल मामा ने कई वर्षों तक शासन किया । इस बीच दलपत देव ने अपनी शक्ति संगठित करनी शुरू कर दी। राखी के दिन दलपतदेव ने राखी का पुरस्कार देने के बहाने दरबार में गया और चंदेल मामा की हत्या कर दी।
और इस तरह बस्तर की सत्ता फिर से दलपत देव के माध्यम से काकतीयों के पास आ गई।

14. दलपत देव (1731-74)
रतनपुर (छत्तीसगढ़) के राजा को हराने के बाद दलपतदेव के समय में मराठों ने 1770 ई. में बस्तर पर आक्रमण किया। मराठों की सेना का नेतृत्व नीलू पंडित या नीलू पंत कर रहे थे । इस युद्ध में मराठों की हार हुई और नीलू पंडित जैपुर भाग गया । वह अपनी सेना को पुनः संगठित करके बस्तर पर आक्रमण किया । अचानक हुए इस आक्रमण के कारण बस्तर की सेना पराजित हुई और अनेक राजाओं ने मराठों की आधीनता स्वीकार कर ली। मगर दलपतदेव नहीं झुके । किवदंतियों के अनुसार दलपतदेव ने अपना राज मराठों से वापस प्राप्त कर लिया । मराठों के लगातार आक्रमणों के चलते दलपत देव ने अपनी राजधानी बस्तर से जगदलपुर कर दिया । 1773 ई. में दलपत देव की मृत्यु हो गई।
15. अजमेरसिंह (1774-77)
दलपतदेव ने अपने पटरानी के पुत्र अजमेरसिंह को राजा घोषित कर दिया था। और उसका संबधी दरियावदेव ने राजा बनने के लिए अजमेरसिंह पर हमला कर दिया । जिस समय दलपतदेव की मौत हुई अजमेर सिंह डोंगर में था । दरियावदेव और अजमेर सिंह में सत्ता को लेकर भीषण संघर्ष हुआ जिसमें दरियावदेव पराजित हुआ । और जगदलपुर भाग गया । इस प्रकार 1774 ई. में अजमेरसिंह बस्तर का राजा बना।
16. दरियावदेव (1777- 1800)
उधर दरियावदेव जैपर में राजा विक्रमदेव से मिला और नागपुर के भोंसले, और कंपनी सरकार के अधिकारी जानसन से राजनीतिक मित्रता की फिर तीनों ने मिलकर बस्तर में आक्रमण किया । और अजमेरसिंह परास्त होकर डोंगर भाग गया । 1777 में अजमेर सिंह की मृत्यु हो गई । भोंसलों के अधीन राजा दरियावदेव के समय बस्तर 1780 में राज्य बन गया था ।
महिपालदेव (1800-42)
दरियावदेव सबसे बड़े बेटे का नाम महिपाल देव था। 1809 तक बस्तर के राजा ने नगापुर के राजा को कोई खास महत्व नहीं दिया। हालांकि 1779 तक बस्तर ने मराठों का वर्चस्व स्वीकार कर लिया था। इसके बाद दरियावदेव और महिपालदेव ने मराठा राजा भीकाजी गोपाल की कोई बात नहीं मानी और टोकली देने से साफ मना कर दिए जिससे वे नाराज हो गए। व्यंकोजी भोसले ने अपने सबसे शक्तिशाली मुसाहिब रामचन्द्र बाघ को आदेश दिया कि वे बस्तर के राजा के दबाए। उसने कांकेर में अचानक आक्रमण कर दिया राजा को निकट के गाँव में शरण लेनी पड़ी। रामचन्द्र बाघ फिर बस्तर पर आक्रमण किया और जगदलपुर पर कब्जा कर दिया किन्तु बस्तर राजा महिपालदेव ने आदिवासियों की सेना को संगठित कर पुनः मराठों पर आक्रमण कर दिया और किले को छिन लिया । रामचन्द्र बाघ अपनी शेष सेना के साथ जंगल भाग गया । और फिर से जगदलपुर पर आक्रमण किया इस बार महिपाल देव को भोंसलों की अधीनता का सत्यनिष्ठ वचन देना पड़ा। इसी समय परलकोट विद्रोह हुआ ।

18. भूपाल देव (1842-53)े
फिर ब्रिटिश राज में ब्रिटिश अधीनता स्वीकार करने वाले काकतीय राजाओं के नाम इस प्रकार हैं महिपालदेव के दो बेटे थे भूपालदेव और दलगंजन सिंह । दोनो सौतेले भाई थे। भूपालदेव ने 25 वर्ष की उम्र में बस्तर का राजा बना। उस वक्त दलगंजन सिंह को तारापुर परगने का अधिकारी बना दिया । दलगंजन सिंह भूपालदेव से ज्यादा लोकप्रिय और सदाचारी था। इसीलिए भूपालदेव सदा उससे भयभीत रहता था। और दोनों के बीच संघर्ष होता रहता था।

19 भैरमदेव (1853-91)
इसके बाद भारत में ब्रिटिश राज की स्थापना हो चुकी थी । भूपालदेव के पुत्र भैरमदेव का जन्म 1839 में हुआ और वह 13 वर्ष की उम्र में बस्तर का राजा बना। भैरमदेव के सिंहासन पर बैठते ही ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली और बस्तर ब्रिटिश राज के अधीन चला गया। ब्रिटिश ने भैरमदेव को शासन का अधिकार दे दिया। भैरमदेव के समय डिप्टी कमीश्नर मेजर चाल्स्र इलियट 1856 ई में बस्तर आया । इसके पूर्व 1795 ई. ब्लण्ट ने बस्तर में प्रवेश करना चाहा मगर उसे सफलता नहीं मिली।
20. रूद्रप्रताप देव (1891-1921)

रूद्रप्रतापदेव भैरवदेव की 28 जुलाई 1891 को मृत्यु हो गई । उस वक्त रूद्रप्रतापदेव केवल 6 वर्ष के थे। उनके बालिग होते तक बस्तर रियासत पूर्णतः अग्रेजों के अधीन था।इस दौरान बस्तर में आलमचन्द्र और रामचन्द्रराव मिश्र दीवान थे । फिर फैगर और गअर प्रशासक के पद पर कार्य करते रहे। 23 वर्ष की अवस्था में रूद्रप्रतादेव का राज्यभिषेक हुआ । और वे बकायदा बस्तर के राजा बने ।
रूद्रप्रताप का कोई बेटा नहीं था । उनकी पहली रानी चन्द्रकुमारी देवी (1921-1936)से उत्पन्न बेटी प्रफुल्लेुमारी देवी को उत्तराधिकारी स्वीकार किया गया और वे बस्तर की महारानी बनी ।
रूद्रप्रतापदेव ने अपने समय में बस्तर में कई निर्माण कार्य कराए। रूद्रप्रताप पुस्तकालय बनी, जगदलपुर एक टाऊन प्लानिंग के तहत को चैराहों का शहर बनाया गया। सन 1900 में बंदोबस्त हुआ। रूद्रप्रताप के समय में ही महाविप्लव भूमकाल हुआ। जिसमें शहीद गुण्डाधुर और डेंगबरीधुर ने अग्रहणी भूमिका निभाई ।
21. महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921-36) जिनके नाम से जिला अस्पताल की स्थापना जगदलपुर में हुई । महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी का जन्म 1910 ई. हुआ । और वे 12 वर्ष की थीं तो बस्तर की महारानी बनी वे रूद्रप्रताप देव की एकलौती पुत्री थी। प्रफुल्ल कुमारी देवी का विवाह मयूर भंज के गुजारेदार प्रफुल्ल चुन्द्र भंजदेव से जनवरी 1925 में हुआ। इसी के साथ बस्तर में नए राजवंश की स्थापना हुई जिसे भंज वंश के नाम से जाना गया। प्रफुल्ल कुमारी देवी के दो पुत्र, ओर दो पुत्रियां थीं जिनमें कमला देवी सबसे बड़ी थी। महारानी को अंग्रेज सरकार लगातार तंग किया करती थी। 1930 ई. में उनके पति ने निजामिस्तान बनाने के ब्रिटिश षडयंत्र के खिलाफ आवाज उठाई थी इसीलिए उनका बस्तर प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया था तथा उनके बच्चों पर अधिकार पर समाप्त कर दिया था।
महारानी को अपेंडीसायटिस के उपचार के लिए लंदन भेजा गया जहाँ 1936 ई. में उनकी मौत हो गई । उनकी मौत को लेकर कई कयास लगाए गए और इतिहासकार उनकी मौत को संदाहस्पद और ब्रिटिश षडयंत्र का हिस्सा मानते हैं। इसके बाद प्रवीरचंद भंज देव को ब्रिटिश शासकों ने औपचारिक रूप से बस्तर का राजा बनाया । जानिए प्रवीरचंद भंज देव के बारे में ।
22. प्रवीर चंद भंजदेव (1936-47)
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1948 में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया । आजादी के बाद भारत में काकतीय राजाआंे के नाम इस प्रकार हैं जिन्हें बस्तर की जनता श्रद्ध पूर्वक राजा मानती है।
23. प्रवीरचन्द्र भंजदेव (1947-61)

प्रवीर चन्द्र भंजदेव के बारे में जानिए । क्लिक कीजिए! Maharaj Pravir Chand Bhanj Dev

24. विजय चंन्द्र भंजदेव (1961-69)
25. भरतचन्द्र भंजदेव (1969-96)
26. कमलचंन्द्र भंजदेव (1997 से अब तक )

 

 

 

 

 

Leave a Comment