15 अगस्त को पूरा देश आजादी की वर्षगांठ मनाता है, हमें अनगिनत कुर्बानियों के बाद 200 साल की गुलामी से आजाद हुए, ब्रिटिश अन्याय का डटकर मुकाबला किया आज की पीड़ी शायद गुंडाधुर के नाम से परिचित होगी। क्योंकि कई शैक्षणिक संस्थाएं और संगठन इस नाम से चल रहीं हैं। आईए जानते हैं
कौन थे गुण्डाधुर और क्या था इनका योगदान ?
कौन है गुंडा धुर 1910 के दरम्यान ब्रिटिश हुकूमत के लिए यह नाम खौफ का पर्याय था, जहाँ एक तरफ क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव, राम प्रसाद बिस्मिल का नाम उत्तर भारत में क्रन्तिकारी गतिविधियों के संचालन में तो दर्ज है तो दूसरी तरफ बस्तर जिले के कांगेर के जंगलो में हुई विद्रोह की अगुवाई करने में गुंडा धुर का नाम सबसे पहले लिया जाता है , उनके साथ उनके साथी मूरत सिंह बक्शी , बालाप्रसाद नजीर तथा कलंदरी थे का नाम भी बड़े सम्मान से लिया जाता है गुंडा धुर अपने 50 से ज्यादा आदिवासी लोगों के साथ 1910 में ब्रिटिश साम्राज्य से मुकाबला किया था , और अंग्रेजो को बस्तर से खदेड़ने के हर संभव प्रयास किये
1910 के विद्रोह में गुडा धुर की भूमिका क्या थी ?
जब ब्रिटिश सरकार ने कांगेर के दो तिहाई जंगलों को रिजर्व घोषित कर दिया तो आदिवासी भड़क उठे और वे सभी अग्रेजो के खिलाफ हो गए क्योकि इस व्यवस्था से उनके हित बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे , उन्होंने धीरे धीरे संगठित होना शुरू किया, आदिवासियों को एक जुट करने में गुंडा धुर की अहम् भूमिका थी 1857 की क्रांति में जिस तरह कमल एवं चपाती के सहारे क्रांति का सन्देश भेजा जाता था ठीक उसी तरह, लाल मिर्च, मिट्टी, तीर धनुष व आम की टहनी सन्देश वाहक का प्रतिक थी गुंडा धुर की अगुवाई में यह फैसला लिया गया की प्रत्येक एक सदस्य को ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के लिए भेजा जायेगा ,गुंडा धुर की नेतृत्व में ये योद्धा ब्रिटिश अनाज के गोदामों को लुटते और उसे गरीबों में बाँट देते थे इसके आलावा स्थानीय जमींदार और नेताओं द्वारा किये जाने वाले अन्याय के खिलाफ भी गुंडा धुर ने आवाज उठाये थे
ब्रिटिश की दमनकारी नीति
गुडा धुर और उनके टोली ब्रिटिश हुकूमत के लिए एक चुनौती थी कई बार ब्रिटिश सेना को गुफाओं में शरण लेनी पड़ी,
जब गुंडा धुर ने बात चीत करनी चाही तो ब्रिटिश सेना ने गावों और गुडा धुर की टुकड़ी पर हमला कर दिया , हालाँकि , ब्रिटिश सेना विजयी हुई मगर वह गुंडा धुर को पकड़ने में कामयाब नही हो सकी गुडा धुर के इसी प्रयास की वजह से कांगेर जंगलों के सम्बन्ध में लिया गया फैसला ब्रिटिश सरकार को वापस लेना पड़ा और गुडा धुर ब्रिटिश को बस्तर से खदेडने में कामयाब रहे गुडा धुर की इस लड़ाई को भूमकाल के नाम से जाना जाता है।
1910 का भूमकाल
बस्तर में भूमकाल को थोड़ा एतिहासिक लिहाज से समझते हैं तो समझ में आता है कि
- यह आदिवासियों का यह एक व्यापक विद्रोह था जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा गया था।
- भूमकाल का अर्थ है कम्पन या भूकम्प या उलट फेर इस लड़ाई के मुख्य कारण ये थे
- अंग्रेजों द्वारा राजा रूद्रप्रताप देव को शासन न सौंपना
- राजवंश से दीवान की नियुक्ति
- स्थानीय प्रशासन की बुराईयां जो अंग्रेजों के हाथ में थी
- बस्तर के वनों को सुरक्षित घोषित करना क्योंकि वनोपज से आदिवासियों को कुछ भी हासिल करने का अधिकार नही होता था।
- वनोपज का सही मूल्य नहीं देना
- लगान में वृद्धि और ठेकेदारी की प्रथा
- घरूलू मदिरा पर पाबंदी
- आदिवासियों को कम मजदूरी देना
- नई शिक्षा नीति
- बस्तर में बाहरी लोगों का आना और आदिवासियों का शोषण
- बेगारी प्रथा
- पुलिस कर्मचारियों के अत्याचार
- अधिकारियों, कर्मचारियों द्वारा आदिवासियों का शोषण
- आदिवासियों को गुलाम समझना
- ईसाई मिशनरियों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन
प्रमुख घटनाक्रम
- अक्टूबर 1909 में राजमाता स्वर्ण कुंवर ने लाल कालेन्द्र सिंह की मौजूदगी में दशहरे के दिन ताड़ोकी में आदिवासियों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया गया। और 1910 में ग्राम नेतानार के गुण्डाधुर को क्रांति का नेता बनाया गया और यह सुनिष्चित किया गया कि हर परगने से एक-एक बहादुर व्यक्ति को विद्रोह में शामिल होने के लिए मनोनीत किया गया । लाल कलेन्द्र सिंह ने इस क्रांति की एक गुप्तरूप से योजना बनाई । ताड़ोकी में एक सम्मेलन भी हुआ। जिसमें कलेन्द्र सिंह के सामन सभी कां्रतिकारियों ने बस्तर के लिए अपना तन, मन और धन कुर्बान कर देंगें
- 1 फरवरी 1910 को इस क्रांति की विधिवत शरूआत हुई । अंग्रेज प्रशासक डी बे्रट भी इस योजना से बेखर था। आम की डालियां, लाल मिर्च , मिट्टी के ढेले, धनुष-बाण, भाले को क्रांति में शामिल होने के लिए प्रतीक के रूप में भेजा गया। 2 फरवरी को विद्रोहियों ने पुसपाल बाजार में लूट मचाई । 4 फरवरी को बुंटु और सोमनाथ नामक क्रांतिकारियों ने कूकानार के बाजार में एक व्यापारी की हत्या कर दी। 7 फरवरी को गीदम में मुरिया राज की घोषण कर दी गई ।
इसके बाद विद्रोहियों ने बारसूर, कोंटा, कुटरू,कुआकोण्डा,मदेड़, भोपालपट्टनम, जगरगुण्डा, उसूर,छोटे डोंगर,कुलुर और बहीगाँव पर हमला किया। - 16 फरवरी 1910 को इंद्रवती तट पर खड़ग घाट में विद्रोहियों और अंग्रेजों के बीच भयंकर संघर्ष हुआ। हुंगा मांझी ने इस विद्रोह में अपनी वीरता दिखाई थी मगर विद्रोही परास्त हुए।
- 25 फरवरी को गुण्डा धुर के नेतृत्व में डाफनागर में अंग्रेजों के साथ भीषण संघर्ष हुआ ।अबूझमाड़ छोटे डोंगर में आयतु महारा ने अंग्रेजों के साथ लड़ाई लड़ी। छोटे डोंगर में कमाण्डर गेयर के साथ लड़ाई लड़ी । गेयर ने पंजाबी टुकड़ी के बल पर इस विद्रोह का दमन किया ।
- मार्च में 6 तारीख को अंगे्रजों ने कड़ाई से इसका दमन करना शुरू किया। लाल कलेन्द्र सिंह और राजमाता कुँवरदेवी को गिरफ्तार किया गया । अनेक विद्रोहियों को कठोर कारावास की सजा हुई। हजारों आदिवासियों को कोड़े लगाने की सजा मिली । कोड़े मारने की कार्यवाही महिनों चलती रही । यह अंग्रेजों की जघन्य कार्यवाही थी । बस्तर के दीवान बैजनाथ पण्डा को हटाकर जेम्स को बस्तर का दीवान बनाया गया। बस्तर के राजा रूद्रप्रताप देव और कांकेर के राजा कोमल देव साथ देते तो यह विपल्व सफल हो जाता । मगर क्रांति का यह परिणाम निकला कि अंग्रेजों ने आदिवासियों से मिलकर रहने में अपनी भलाई समझी ।
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