चित्रकला, भारतीय चित्रकला का इतिहास और प्रमुख शैलियां ।

भारतीय चित्रकला का इतिहास :–

भारतीय चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना है यद्यपि आधुनिक शैली की चित्रकला को अधिक पुराना नहीं माना जाता । भारत में चित्रकला की शुरुआत पाषाण युग में आदि मानव ने ही कर डाली थी।

पाषाण काल में ही मनुष्य ने गुफा चित्रण करना प्रारंभ कर दिया था जिसके कई प्रमाण भीमबेटका, आदमगढ़ और महादेव आदि स्थानों की कंदराओं और गुफाओं में मिले हैं ।

इन चित्रों में शिकार, स्त्रियों तथा पशु पक्षियों आदि के दृश्य चित्रित है सिंधु घाटी सभ्यता में भवन के अवशेषों अत्यंत जर्जर होने के कारण चित्रकला का प्रमाण स्पष्ट नहीं है।

प्रथम सदी ईसा पूर्व में चित्रकला के अधिक स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं अजंता की गुफाओं में की गई चित्रकारी कई शताब्दियों में तैयार हुई थी परंतु इसकी सबसे प्राचीन चित्रकारी ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी की है।

इन चित्रों की विषय वस्तु भगवान बुद्ध के विभिन्न जन्मों की कथाओं अर्थात जातक को बनाया गया है।

छठवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के चालुक्यों द्वारा बादामी में सातवीं शताब्दी में पल्लवों द्वारा पनमलै में 9 वीं शताब्दी में पांडवों द्वारा सितन्नवासल में 12 वीं शताब्दी में चोलो द्वारा तंजौर में तथा 16 वी शताब्दी के विजय नगर साम्राज्य के शासकों द्वारा लेपाक्षी में भित्ति चित्रों के उत्कृष्ट चित्र तैयार कराए गए थे।

इसी प्रकार की केरल ने भी इस कला के कई उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं ।

बंगाल के पाल शासकों के काल 10वीं और 12वीं शताब्दी में ताड़ के पत्तों से तथा बाद के युग में कागज पर लघु चित्रकारी का प्रचलन हो गया था।

मुगल काल की चित्रकला अपनी उत्कृष्टता के लिए विख्यात है अकबर के दरबार में अनेक फारसी तथा भारतीय चित्रकार मौजूद थे इस काल में कला की एक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि एक ही चित्र को विभिन्न कलाकारों द्वारा मिलकर तैयार किया जाता था।

एक कलाकार चित्र का रेखांकन करता था तो दूसरा उसमें रंग भरता था और तीसरा उसे अंतिम टच देता था।

अकबर ने रामायण और महाभारत का अनुवाद तैयार कराकर उसे चित्रकारी से सजाने का आदेश दिया था।

जहांगीर के काल में चित्रकला अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई थी क्योंकि जहांगीर स्वयं एक उत्कृष्ट चित्रकार था।

मुगल दरबार में अनेक नए चित्रकारों को प्रशिक्षण भी दिया जाता था और वे विभिन्न राजपूत राज्यों की राजधानियों में अपनी कला का प्रदर्शन करते लगे थे।

इन चित्रकारों ने देश की महान कथाओं और आख्यानों, राम कथा कृष्ण की कथा, भागवत कथा, गीतगोविंद के आख्यानो आदि का आकर्षक चित्रण किया है।

किशनगढ़ शैली तथा कोटा शैली ऐसी ही चित्रकला शैली है हिमालय कुल्लू और कांगड़ा घाटियों में भी उत्कृष्ट चित्रकला का विकास हुआ ।

अंग्रेजी सत्ता के अधिन होने के बाद चित्रकला का विकास धीमा हो गया रवि वर्मा रविंद्र नाथ टैगोर आदि ने धीरे-धीरे इस कला को पुनः गति देने का प्रयास किया।

इसके बाद गजेंद्र नाथ टैगोर ,अमृता शेरगिल, नंदलाल बोस, जैमिनी राय और रविंद्र नाथ टैगोर आदि कलाकारों ने भारतीय चित्रकला को नए आयाम देने के प्रयास किए ।

आधुनिक युग में मकबूल फिदा हुसैन एके हलधर जितेंद्र नाथ मुजूमदार शारदा अकील आदि भी आधुनिक भारतीय चित्रकला के प्रमुख चित्रकार हैं जिन्होंने चित्रकला को और समृद्धि प्रदान की।

जैसा कि हमें ज्ञात है भारत विविधताओं का देश है यहां हजारों प्रकार की बोलियां खानपान रस्मो रिवाज और जीवनशैली पाए जाते हैं इसी के अनुरूप भारतीय चित्रकला में भी अनेक शैलियां है परंतु यह सभी शैलियां विविधता में एकता के ही उदाहरण है।

भारतीय चित्रकला की प्रमुख शैलियां :–

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1) जैन शैली

सातवीं से 12वीं शताब्दी तक संपूर्ण भारत को प्रभावित करने वाली शैलियो में जैन शैली सर्व प्रमुख है इस शैली का प्रथम प्रमाण सित्तनवासल की गुफाओं में बनी उन पांच जैन मूर्तियों से प्राप्त होता है जो सातवीं शताब्दी के पल्लव नरेश महेंद्र वर्मन के शासनकाल में बनाई गई थी।

भारतीय चित्रकला में कागज पर की गई चित्रकारी के कारण इसका प्रथम स्थान है।

इस कला शैली में जैन तीर्थंकरों पार्श्वनाथ नेमिनाथ ऋषभ नाथ महावीर स्वामी आदि के चित्र सर्वाधिक प्राचीन है।

इस कला का नमूना जैन ग्रंथों के ऊपर लगी दफ़्तियों या लकड़ी के पटरियों पर भी मिलता है। जिसमें सीमित रेखाओं के माध्यम से तीव्र भाव भक्ति तथा आंखों के बड़े सुंदर चित्र बनाए गए हैं ।

इस शैली पर मुगल और किरानी शैली का प्रभाव पडा दिखता है।

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2) पाल शैली

नौवीं से 12वीं शताब्दी तक बंगाल में पाल वंश के शासकों धर्मपाल और देव पाल के शासनकाल के दौरान इस शैली का विकास हुआ था।

इस शैली की विषय वस्तु बौद्ध धर्म से प्रभावित है। प्रारंभ में ताड पत्र और फिर कागज के आने के बाद उस पर चित्र बनाए गए।

चित्रों में वज्रयान बौद्ध धर्म के दृश्य चित्रित है दृष्टांत शैली की प्रधानता वाली इस पाल शैली में तिब्बत और नेपाल की चित्रकला को विशेष रूप से प्रभावित किया है।

इसका प्रमुख केंद्र पूर्वोत्तर भारत ही रहा है वर्तमान में इस शैली के चित्र देश के विभिन्न भागों में स्थित संग्रहालय में देखे जा सकते हैं।

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3) अपभ्रंश शैली

पश्चिम भारत में विकसित होने वाली लघु चित्रों की यह शैली थी जो 11वीं से 15वीं शताब्दी के बीच प्रारंभ हुई थी अन्य शैलियों की भांति शुरुआत में इसे ताड पत्र पर और फिर बाद में कागज पर चित्रित किया गया।

इस शैली के चित्रों की प्रमुख विशेषता चेहरे की विशेष बनावट नुकीले नाक तथा आभूषणों की आकर्षक साज सज्जा है प्रारंभ चित्रों में जैन धर्म से संबंधित घटनाओं का चित्रण हुआ और बाद में वैष्णव धर्म से प्रभावित चित्र बनाए गए हैं।

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4) मुगल शैली

मुगल बादशाह बाबर और हुमायूं के काल में मुगलकालीन चित्रकला पारसी चित्रकला शैली से पूर्णतया प्रभावित थी ।

अकबर काल में एक नवीन शैली का विकास हुआ जो भारतीय और फ़ारसी चित्रकला का मिलन थी।

फारसी चित्रकार मीर सैयद अली ख्वाजा अब्दुल समद तथा भारतीय चित्रकार बासवान दासवन्त केसुदास आदि के संयुक्त प्रयासों से विकसित इस शैली के चित्रों में युद्ध, मुगल राज दरबार आदि का चित्रण है।

इस काल की कला पर पुर्तगाली प्रभाव भी दिखाई देता है जहांगीर के काल में चित्रकला का और अधिक विकास हुआ था उसने पशु पक्षियों के उत्कृष्ट चित्र बनवाएं किले की दीवारों पर फूल पत्तियों के चित्रण की विशेष शैली देखने को मिलती है जिसे इतिहासकारों ने पित्रेदुरा नाम दिया है।

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5) पटना या कंलम शैली

जनसामान्य के सामान्य जीवन के चित्रण के लिए प्रसिद्ध पटना कलम शैली का विकास मुगल साम्राज्य के पतन के बाद हुआ था।

जब चित्रकारों ने पटना एवं इसके समीपवर्ती क्षेत्र को अपना कार्यक्षेत्र बनाया इन चित्रकारों द्वारा चित्र बनाकर ब्रिटेन भी भेजे गए।

जो आज भी वहां के संग्रहालय में देखे जा सकते हैं इस शैली में निर्मित चित्रों में लोहार बड़ई नाई धोबी मछली विक्रेता फेरीवाला आदि विषयों की प्रमुखता है। लालचंद एवं गोपाल इस शैली के प्रसिद्ध चित्रकार थे।

6) दक्कन शैली

इस शैली का प्रमुख केंद्र बीजापुर था परंतु इसका विस्तार गोलकुंडा और अहमदनगर राज्यों तक भी था।

राग माला के चित्रों का चित्रांकन इस शैली में विशेष रूप से किया गया है इस शैली के महान संरक्षकों में बीजापुर के अली आदिलशाह तथा उनके उत्तराधिकारी इब्राहिम शाह प्रमुख थे।

इस शैली के प्रारंभिक चित्रों पर फारसी चित्रकला का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है इस शैली की वेशभूषा पर उत्तर भारतीय विशेष रूप से मालवा क्षेत्र का प्रभाव पड़ा है।

7) गुजराती शैली

गुर्जर विद्या गुजराती शैली के नाम से पुकारे जाने वाली इस चित्रकला की शैली में पर्वत, नदी, सागर, पृथ्वी, अग्नि, बादल, आकाश, वृक्ष आदि विशेष रूप से बनाए जाते थे। इस शैली के चित्रों की प्राप्ति मारवाड़ ,अहमदाबाद, मालवा, जौनपुर, अवध, पंजाब, नेपाल, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा म्यांमार तक होती है।

इनसे सिद्ध होता है कि इस का प्रभाव क्षेत्र काफी विस्तृत था। इस शैली से राजपूत चित्रकला शैली का विकास हुआ है। इस शैली में राग माला के बीच चित्रों का चित्रांकन किया गया है।

मुगल सम्राट अकबर के समय के चित्र भी इस शैली से प्रभावित हुए थे। इस कला शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय डॉ आनंद कुमार स्वामी को है।

8) राजपूत शैली

औरंगजेब के समय में जब औरंगजेब दक्षिण भारतीय राज्यों में उलझा हुआ था और उसके बाद जब मुग़ल शक्ति कमजोर हुई उस समय उत्तर भारत विशेषकर राजस्थान में अनेक छोटे-छोटे राजपूत राज्यों की उत्पत्ति हुई जिसमें मेवाड़ बूंदी मालवा आदि प्रमुख थे।

इन राज्यों में विशिष्ट प्रकार की चित्रकला शैली का विकास हुआ इन विभिन्न शैलियों में से कुछ विशेषताएं उभयनिष्ठ दिखाई देती हैं जिनके आधार पर उन्हें राजपूत शैली का नाम दिया गया है।

चित्रकला की यह शैली काफी प्राचीन प्रतीत होती है किंतु इसका वास्तविक स्वरूप 15वीं शताब्दी के बाद ही प्राप्त होता है।

यह शैली वास्तव में राज दरबारों से प्रभावित थी जिस के विकास में कन्नौज, बुंदेलखंड तथा चंदेल राजाओं का योगदान महत्वपूर्ण था।

यह शैली विशुद्ध हिंदू परंपराओं पर आधारित है, इस शैली में राग माला से संबंधित चित्र काफी महत्वपूर्ण है। इस शैली का विकास कई शाखाओं के रूप में हुआ है जिसका विवरण निम्न है

i) मेवाड़ शैली

मेवाड़ शैली राजस्थानी जनजीवन और धर्म का जीता जागता स्वरूप प्रस्तुत करती है। इतिहासकार  तारक नाथ ने 7 वीं शताब्दी में मारवाड़ के प्रसिद्ध चित्रकार श्रीरंग घर को इसका संस्थापक माना है, लेकिन उसके तत्कालीन चित्र उपलब्ध नहीं है ।

राग माला के चित्र 16 शताब्दी में महाराणा प्रताप की राजधानी चावड में बनाए गए जिसमें लोक कला का प्रभाव तथा मेवाड़ शैली का स्वरूप चित्रित है।

राग माला चित्रावली दिल्ली के संग्रहालय में सुरक्षित है। कुंभलगढ़ के दुर्ग तथा चित्तौड़गढ़ के भवनों में कुछ भित्ति चित्र भी अस्पष्ट और धुंधले रूप में देखने को मिलते हैं।

वल्लभ संप्रदाय के राजस्थान में प्रभावी हो जाने के कारण राधा कृष्ण की लीलाएं मेवाड़ शैली की मुख्य विषय वस्तु है।

इस शैली के रंगों में पीला, लाल तथा केसरिया प्रमुख है। पृष्ठभूमि या तो एक रंग में सपाट है अथवा आकृतियों के विरोधी रंगों का प्रयोग किया गया है।

प्रारंभिक मेवाड़ शैली में जैन व गुजरात की चित्र कलाओं का मिश्रण दिखाई देता है तथा लोक कला की रुक्षता, मोटापन, रेखाओं का भारीपन इसकी विशेषताएं रही है।

17 वीं शताब्दी के मध्य में इस शैली का एक स्वतंत्र स्वरूप रहा था। मानव आकृतियों में अंडाकार चेहरे लंबी नुकीली नाक, मीन नयन तथा आकृतियां छोटे कद की है।

पुरुषों के वस्त्रों में जामा पटका तथा पगड़ी और स्त्रियों ने चोली पारदर्शी पूर्ण बूटीदार अथवा सादा लहंगा पहना है। बाहों तथा कमर में काले फुदने अंकित है।

प्राकृतिक दृश्य चित्रित अलंकृत है राग माला के चित्रों में कृष्ण तथा गोपियों की लीलाओं में श्रृंगार रस का चित्रण अत्यंत सजीव दिखाई देता है।

ii) जयपुर शैली

जयपुर शैली का योग 16 साल से 19 साल तक माना जा सकता है। इस शैली के अनेक चित्र शेखावटी में 18वीं शताब्दी के मध्य और उत्तरार्ध में भित्ति चित्रों के रूप में बने हैं।

इसके अतिरिक्त सीकर, नवलगढ़ ,रामगढ़, कुंभलगढ़, झुंझुनू इत्यादि स्थानों पर भी इस शैली के द्वितीय चित्र प्राप्त होते हैं।

जयपुर शैली के चित्रों में भक्ति तथा श्रृंगार का सुंदर मिश्रण मिलता है कृष्ण लीला राग रागिनी रासलीला के अतिरिक्त शिकार तथा हाथियों की लड़ाई के अद्भुत चित्र बनाए गए हैं।

विस्तृत मैदान वृक्ष मंदिर के शिखर अश्वरोही आदि प्रथा अनुरूप ही चित्रित है। विशेष रूप से इस समय के चित्रों में मुगल कला के प्रभाव से मीनारों और विस्तृत और शैलमालाओं का प्रभावशाली चित्रण किया गया है।

जयपुर के कलाकार उद्यान चित्रण में भी अत्यंत सिद्धहस्त थे उद्यानों में भांति भांति के वृक्षों पक्षियों तथा बंदरों का सुंदर चित्रण किया गया है।

मानव आकृतियों में स्त्रियों के चेहरे गोल बनाए गए हैं आकृतियां मध्यम हैं। मीन नैन, भारी होंठ, मांसल चिबुक, भरा गठा हुआ शरीर चित्रित किया गया है।

नारी पात्रों को चोली कुर्ती दुपट्टा गहरे रंग का घेरदार लहंगा तथा कहीं-कहीं जूती पहने चित्रित किया गया है।

पतली कमर, कमर के नीचे तक झूलती चोटी , पांव में पायल, माथे पर टीका कानों में बालियां मोती के झुमके हार, हसली बाजूओ में बाजूबंद हाथों में चूड़ी आदि।

आभूषण मुगल प्रभाव से ही इस शैली में दिखाई देते हैं स्त्रियों की भारतीय पुरुषों को भी वस्त्र आभूषणों से

सुसज्जित किया गया है पुरुषों को कलंगी लगी पगड़ी, कुर्ता पजामा अंगरक्खा ढोली मोरी का पजामा कमरबंद पटका तथा नोकदार जूता पहने हुए चित्रित किया गया है।

चित्रों में हरा रंग प्रमुख है हासिये लाल रंग से भरे गए हैं जिनको बेल गुटों से सजाया गया है। लाल, पीला, नीला तथा सुनहरे रंगों का बाहुल्य इस शैली में दिखाई देता है।

iii) बीकानेर शैली

मारवाड़ शैली से संबंधित इस बीकानेरी शैली का सर्वाधिक विकास अनूप सिंह के शासनकाल में हुआ था। रामलाल अली रजा हसन रजा रुकनुद्दीन आदि इस शैली के प्रमुख कलाकार थे ।

इस शैली पर पंजाबी शैली का भी प्रभाव दिखाई देता है क्योंकि बीकानेर क्षेत्र उत्तर में पंजाब के समीप स्थित है यही के शासकों की नियुक्ति दक्षिण में होने के कारण इस शैली पर दक्खिनी शैली का भी प्रभाव पड़ा है ।

इस शैली की सबसे प्रमुख विशेषता है मुस्लिम कलाकारों द्वारा हिंदू धर्म से संबंधित एवं पौराणिक विषयों पर चित्रांकन करना है ।

iv) मालवा शैली

मालवा शैली की चित्रकला में वास्तुशिल्पीय दृश्यों की ओर झुकाव, सावधानीपूर्वक तैयार की गई सपाट किंतु सुव्यवस्थित संरचना श्रेष्ठ प्रारूपण शोभा हेतु प्राकृतिक दृश्यों का सृजन तथा रूपों को उभारने के लिए एक रंग के धब्बों का सुनियोजित और सुव्यवस्थित प्रयोग दर्शनीय है।

स्त्री पुरुष दोनों का चित्रण सुकुमार आंगिक स्वरूप में लघु मुख एवं  मृग नयन रुप में किया गया है माधव दास रचित रंग माला के दृश्य इस शैली के अनुपम उदाहरण है।

v) किशनगढ़ शैली

राजस्थान की किशनगढ़ चित्रकला शैली अपने शृंगारिक चित्रों के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध है किशनगढ़ के राजा सामंत सिंह श्रृंगार प्रिय और श्रेठ साहित्यकार थे जो नागरी दास के नाम से भी प्रसिद्ध है इनकी प्रेमिका बनी ठनी राधा का सौंदर्य इनके काव्य पर आधारित है।

किशनगढ़ शैली पर मुगल कला का भी प्रभाव परिलक्षित होता है इस कला का भारतीय लघु कला में अद्वितीय स्थान है।

नारी चित्रण विशेष रूप से सुंदर किए गए हैं स्त्रियों के चेहरे कोमल हैं कहीं भी भारीपन नहीं है शरीर लताओं के समान पतला लचकदार और छरहरा चित्रित किया गया है।

स्त्री-पुरुष कई आभूषणों से सुसज्जित किए गए हैं प्रकृति चित्रण में लता वृक्ष आदि को प्रेमी-प्रेमिका की मनोदशा के प्रतिकात्मक रूप में चित्रित किया गया है गोवर्धन धारण चित्र में अनेक आकृतियां बनाई गई है।

चित्रों में काले सफेद नीले और हरे रंगों की प्रधानता है पीला तथा लाल रंग संतुलित रूप से प्रयोग किए गए हैं किशनगढ़ शैली के चित्रों में भाव  की गहराई अद्भुत है।

इस शैली के प्रमुख कलाकार अमीरचंद, छोटू, भवानी दास, निहालचंद, सीताराम आदि है यह शैली दरबार तक सीमित रही फिर भी अनेक विषयों का चित्रण हुआ जैसे राधा कृष्ण की प्रणायलीला, नायिका भेद, गीत गोविंद ,भागवतपुराण, बिहारी चंद्रिका आदि।

vi) बूंदी शैली

17 वी शताब्दी के आरंभ में मेवाड़ शैली की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में विकसित बूंदी शैली के प्रमुख केंद्र कोटा बूंदी झालावाड़ थे।

बूंदी राज्य की स्थापना 1341 में राव देवा ने की थी लेकिन चित्रकला का विकास राव सुरजन से आरंभ हुआ इसके बाद आए राजाओं ने भी इस शैली के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इस शैली की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि चेहरे पर छाया लगाने का प्रचलन चित्रों पर प्रमुखता से दिखाई देता है इस शैली की मानव आकृतियां आमतौर पर लंबी, पतला शरीर, गोल मुंह, पतले अधर ,नेत्र अर्ध विकसित नाक नुकीली छोटी सी चिबुक ग्रीवा भी अधिक लंबी नहीं छोटी तथा अलंकारों से सुसज्जित चित्रित होती है ।

पतली कलाई हथेली व उंगलियां मेहंदी की लालिमा से रंगी हुई छोटा आगे निकला हुआ तथा कंचुकी से कसा हुआ वक्ष इस शैली की विशेषता है।

वस्त्रों में स्वर्ण बूटे की कारीगरी आलेखन इतने झीने व पारदर्शक बनाए गए हैं कि शरीर अनावृत सा दिखाई देता है।

काले लहंगे लाल चुनरी तथा धवल कंचुकी  चित्रित की गई है। चोटी केेेश नितंब से नीचे तक झूलती हुई तथा उसमें एक या तीन फुदने चित्रित है।

पुरुष की आकृतियों में नीचे झुकी पगड़ी घुटने से लंबे पारदर्शक जामे कमर में दुपट्टा, चुस्त पायजामा कानों में मोती, पुरुषत्व  से भरा मुख ,बड़ी मूछें चित्रित की गई है।

इस शैली के चित्रों के मुख्य विषय राग रागिनीया हैं अन्य विषय नायिका भेद बारहमासा तथा कृष्ण लीला है मनोहर प्रकृति चित्रण तथा जनसाधारण के चित्र बहुलता से बनाए गए हैं।

बूंदी के चित्रों में मनमोहक चटकीले रंगों का प्रयोग किया गया है लाल सफेद पीला और हरा चित्रकारों के लिए प्रिय रंग है।

vii) अलवर चित्रकला शैली

इस शैली की स्थापना 1775 में अलवर के राजा प्रताप सिंह ने की थी इस शैली के चित्रों में मुगलकालीन चित्रों जैसा बारीक काम परदों पर धुएं के समान छाया तथा रेखाओं की सुदृढ़ता दर्शनीय है।

अलवर के लघु चित्रों में हरे व नीले रंग की अधिकता देखी जा सकती है प्राचीन चित्रों में स्त्री व पुरुष आकृतियां मछली जैसी गोल दिखाई गई है।

9) पहाड़ी चित्रकला शैली

राजपूत शैली से ही प्रभावित पहाड़ी चित्रकला हिमालय की तराई में स्थित विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुई है परंतु इस पर मुगलकालीन चित्रकला का भी प्रभाव दिखाई देता है।

पांच नदियों सतलज, रावी, व्यास, झेलम तथा चेनाब का चित्र पंजाब तथा अन्य पर्वतीय केंद्रों जैसे जम्मू कांगड़ा गढ़वाल आदि ने विकसित चित्रकला शैली पर पर्वती क्षेत्र के निवासियों की भावनाओं तथा संगीत व धर्म संबंधी परंपराओं की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।

पहाड़ी शैली के चित्रों में प्रेम का विशिष्ट चित्रण दिखाई देता है राधा

कृष्ण के प्रेम के चित्रों के माध्यम से इसमें स्त्री पुरुष प्रेम संबंधों को बड़ी बारीकी एवं सहजता से दर्शाया गया है पहाड़ी शैली के विभिन्न केंद्रों में विकसित होने के कारण इसके अनेक भाग किए जा सकते हैं जो निम्न है।

i) बसोहती शैली

चित्रकला की इस शैली का जन्म हिंदू मुगल तथा पहाड़ी शैलियों के समन्वय से हुआ है जिसमें मुगल शैली की तरह पारदर्शी परदे तथा पुरुषों के कपड़ों का प्रयोग किया गया है।

जबकि चेहरे स्थानीय लोक कला पर आधारित हैं यह शैली हिंदू धर्म एवं परंपरा पर आधारित है और विष्णु और उनके दशावतारों का अधिक चित्रण किया गया है इस शैली के अंतर्गत रामायण, महाभारत, और गीत गोविंद पर आधारित चित्रों की भी रचना की गई है।

ii) गुलेरी शैली

चित्रकला की पहाड़ी शैली के अंतर्गत विकसित गुलेरी शैली के चित्रों का मुख्य विषय रामायण तथा महाभारत की घटनाएं हैं ।

इस शैली में इतना सशक्त और सजीव रेखांकन किया गया है कि मानव आकृतियों के अंग प्रत्यंग अपनी स्वाभाविकता से दिखाई देते हैं इस शैली में निर्मित चित्रों में संतुलन तथा मनमोहकता का भाव परिलक्षित होता है।

iii) गढ़वाल शैली

इस शैली का विकास गढ़वाल क्षेत्र जो कि वर्तमान जम्मू कश्मीर है, में हुआ था 17 वी शताब्दी में गढ़वाल राज्य के नरेश पृथपाल सिंह के दरबार में रहने वाले 2 चित्रकारों सामनाथ तथा हरदास ने इस शैली के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया था ।

इस शैली में पर्वतीय एवं प्राकृतिक दृश्य पशु पक्षियों आदि को मनमोहक और कुशलतापूर्वक चित्रांकन किया गया है उत्तर भारत में इस शैली का एक महत्वपूर्ण और सम्मानीय स्थान है।

iv) जम्मू शैली

मुगल शैली से प्रभावित इस शैली का विकास जम्मू क्षेत्र में हुआ जब नादिरशाह के द्वारा दिल्ली पर आक्रमण करके दिल्ली को लूटा गया तो दिल्ली दरबार के चित्रकारों ने वहां से भागकर पहाड़ी राज्यों और राजाओं की शरण ली और एक नवीन शैली के चित्रों का निर्माण किया।

इस शैली के संरक्षको में जम्मू के राजा रणजीत देव का नाम सर्वोपरि है इस शैली में बने हुए अधिकांश चित्र दैनिक क्रियाकलापों से संबंधित हैं इनमें प्राकृतिक दृश्यों का भी सुंदरता पूर्वक समावेश किया गया है।

v) कांगड़ा शैली

भारतीय चित्रकला के इतिहास में मध्य युग में विकसित पहाड़ी शैली के अंतर्गत कांगड़ा शैली का विशेष स्थान है।

इसका विकास कचोट राजवंश के राजा संसार चंद्र के कार्यकाल में हुआ इस इस शैली में पौराणिक कथाओं और रीतिकालीन नायक नायिकाओं के चित्रों की प्रधानता है तथा अल्प रूप में व्यक्ति चित्रों को भी स्थान दिया गया है।

इस शैली में सर्वाधिक प्रभावशाली आकृतियां स्त्रियों की है जिसमें चित्रकारों ने भारतीय परंपरा के अनुसार नारी के आदर्श रूप का ही चित्रण किया है ।

कांगड़ा शैली के स्त्री चित्रों में संकुल को अभिव्यक्त करने वाले वस्त्र चांद सी गोल चेहरे की आकृति बड़ी-बड़ी भाव प्रवण आंखें भरे हुए वक्ष लयमन उंगलियां मुख में छिपा हुआ रहस्यमय भाव दिखाई देता है।

इसे निजी शैली की मान्यता दी जा सकती है जिस की प्रमुख विशेषता नारी सौंदर्य के प्रति अत्यधिक झुकाव है इस शैली में प्राकृतिक विशेषकर पर्वती अतिथियों का भी चित्रण सजीवता से किया गया है

10 नाथद्वारा शैली

17 वी शताब्दी में ब्रिज से श्रीनाथजी की मूर्ति के नाथद्वारा लाए जाने के पश्चात बृजवासी चित्रकारों द्वारा मेवाड़ में ही चित्रकला की स्वतंत्र नाथद्वारा शैली का विकास किया गया।

इस शैली में बने चित्रों में श्रीनाथजी की प्राकृतिक छवियों, आचार्यों के दैनिक जीवन संबंधी विषयों तथा कृष्ण की विविध लीलाओं को दर्शाया गया है।

18वीं शताब्दी को इस कला शैली का चरमोत्कर्ष काल माना जा सकता है जबकि 19वीं शताब्दी में इस पर व्यवसायिक था प्रभावी हो गई और तब से यह शैली निरंतर परिवर्तनशील रही है।

11) सिक्ख शैली

इस शैली का विकास लाहौर स्टेट के महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल 1803 से 1840 के मध्य हुआ।

इस शैली के विषय पौराणिक महाकाव्य से लिए गए हैं जबकि इसका स्वरूप पूर्णता भारतीय है इस शैली में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से संबंधित राग माला के चित्रों की प्रमुखता है कालांतर में इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव होने लगा।

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