भारतीय संविधान का निर्माण आदर्श परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया गया था संविधान निर्माताओं को उन परिस्थितियों का आभास ही नहीं था जब पद और सत्ता के लालच में सरकारों का गठन और विघटन होगा।
मूल संविधान में दल बदल संबंधी कोई भी कानून नहीं था इसे संविधान के 52 में संशोधन द्वारा 1985 में जोड़ा गया था।
दल बदल कानून क्या है –:
सत्ता के वशीभूत होकर कुछ जनप्रतिनिधि अपने दल को छोड़कर दूसरे दलों में अनैतिक और नियम विरुद्ध पलायन करने लगे, जिससे राज्यों में चुनी गई सरकारें अस्थिर हो गई तो ऐसी अनैतिक और गैर संवैधानिक
गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए संसद ने संविधान के 52 वें संशोधन द्वारा एक कानून पारित किया इस कानून के परिणाम स्वरूप गैरजरूरी और अनैतिक दलबदल की गतिविधि पर रोक लगाई गई।
दल बदल कानून की पृष्ठभूमि –:
आजादी के बाद उस समय की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की सरकार राज्य और केंद्र की सत्ता में थी 60 के दशक में राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ और यहीं से जोड़-तोड़ की राजनीति ने जन्म लिया सत्ता पद और धन के लिए दलबदल की गतिविधियों को बढ़ावा मिला।
कुछ लोगों द्वारा चुनी गई सरकारों को दलबदल करके अल्पमत में लाना और सरकार गिरा कर नई सरकार का गठन और अनैतिक तरीके से पद और सत्ता की प्राप्ति प्रचलन में आ गई ।
70 के दशक में एक समय ऐसा भी था जिसे आया राम गया राम के नाम से जाना जाता है, जब कुछ जनप्रतिनिधि धन सत्ता और पद के लालच में लगातार अपना दल बदलते रहते थे।
संविधान में इस प्रकार की गतिविधियों पर कोई प्रावधान नहीं होने के कारण संसद के सामने एक नई व्यवस्था का प्रश्न और नए कानून के निर्माण की परिस्थितियां उत्पन्न हुई।
दल बदल कानून का निर्माण –:
दल बदल की गतिविधियों में लगातार वृद्धि के कारण 8 दिसंबर 1967 को लोकसभा में एक संकल्प पारित किया गया।
इस संकल्प में दलबदल को रोकने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति के गठन का अनुरोध किया गया था।
इस संकल्प के आधार पर उस समय की केंद्रीय गृह मंत्री वाई वी चौहान की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया इस समिति के सदस्यों में संविधान के विशेषज्ञ और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को सम्मिलित किया गया।
इस समिति को दलबदल की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए सिफारिश करने का कार्य सौंपा गया। 28 फरवरी 1969 को समिति ने अपनी रिपोर्ट लोकसभा अध्यक्ष को सौंप दी।
इन सिफारिशों (रिपोर्ट) के आधार पर 16 मई 1973 को लोकसभा में एक विधेयक पेश किया गया, लेकिन दुर्भाग्य से लोकसभा के भंग होने के कारण यह विधेयक निलंबित हो गया।
पुनः 28 अगस्त 1978 को यह विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत हुआ सत्तारूढ़ दल के सदस्यों द्वारा इस विधेयक का विरोध करने के कारण इसे वापस ले लिया गया ।
24 जनवरी 1985 को यह विधेयक एक बार फिर से 52 में संविधान संशोधन के रूप में प्रस्तुत हुआ 30 जनवरी 1985 को लोकसभा ने और फिर 31 जनवरी 1985 को राज्यसभा से पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति से यह विधेयक लागू हो गया।
दल बदल विरोधी कानून –:
संविधान के 52 वें संशोधन अधिनियम 1985 द्वारा दलबदल के आधार पर केंद्र एवं राज्य की व्यवस्थापिका अर्थात संसद और राज्य विधानमंडल के किसी भी सदस्य को अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
इस प्रकार संविधान में अनुच्छेद 102 (2) और 191 (2) के साथ दसवीं अनुसूची को जोड़कर संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं।
सदन की सदस्यता के लिए अयोग्यता का प्रावधान
सदन या राज्य विधान मंडल के सदस्यों को निम्नलिखित आधार पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
i) यदि कोई सदस्य किसी राजनीतिक दल का सदस्य है और वह उस राजनीतिक दल की सदस्यता से स्वयं त्यागपत्र दे देता है तो वह सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
ii) यदि कोई सदस्य जिस राजनीतिक दल का सदस्य है और वह खुद राजनीतिक दल के निर्देश या राजनीतिक दल द्वारा नियुक्त किसी प्राधिकारी के निर्देश का पालन न करते हुए किसी मतदान में भाग लेता है या मतदान
में भाग नहीं लेता और यदि उस राजनीतिक दल का प्राधिकारी उसे 15 दिन में क्षमा नहीं करता तो उसे सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है।
iii) यदि कोई सदस्य जो किसी राजनीतिक दल द्वारा समर्थित उम्मीदवार के विपरीत रूप से सदस्य निर्वाचित हुआ है, और वह निर्वाचन के पश्चात किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाता है तो सदन की सदस्यता से अयोग्य घोषित किया जा सकता है
iv) यदि कोई नाम निर्देशित (मनोनीत) सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने की तिथि से 6 माह की समाप्ति के पश्चात किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित होता है तो वह सदन की सदस्यता के अयोग्य होगा।
सदन की सदस्यता के लिए अयोग्यता से छूट –:
i) दलों के विलय पर
जब दो या दो से अधिक राजनीतिक दल आपस में विलय का निर्णय करें और उन दलों के संसदीय तथा विधायक दलों के संबंधित कम से कम दो तिहाई सदस्य ऐसे विलय के पक्ष में संकल्प पारित कर दें तब विलय के लिए दल छोड़ने वाले संसद या राज्य विधान मंडल के सदस्य अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता ।
ii) दलों का विभाजन होने पर
जब किसी राजनीतिक दल का विभाजन होता है तब दल के विभाजन के कारण दल से अलग होने वाले सदस्य संसद या विधानमंडल की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं होते लेकिन दल का विभाजन केवल तब माना जाएगा।
जब संसद या विधान मण्डल के कम से कम एक तिहाई सदस्य सामूहिक रूप से दल को विभाजित करने पर सहमत हों।
iii) सदन के पदाधिकारी के रूप में चुने जाने पर
यदि लोकसभा तथा विधानसभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष पद पर राज्यसभा के उपसभापति या राज्य विधान परिषद के सभापति व उपसभापति के पद पर चुने जाने के कारण कोई सदस्य अपने दल की सदस्यता से त्यागपत्र दे देता है तो उसे सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं घोषित किया जा सकता है।
iv) दल से निकाले जाने पर
यदि संसद या राज्य विधानमंडल के किसी सदस्य को अनुशासनहीनता के कारण दल से निकाल दिया जाता है तो वह संबंधित सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं होगा क्योंकि, दलबदल से संबंधित कानून तब लागू होता है जब कोई सदस्य स्वेच्छा से दल बदलता है या दल के सचेतक के निर्देश के विरुद्ध मतदान करता है।
योग्यता से संबंधित प्रश्न का निर्णय –:
संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुसार किसी भी न्यायालय को सदन के किसी सदस्य की योग्यता से संबंधित किसी विषय के बारे में सुनवाई का कोई अधिकार नहीं है।
लोकसभा तथा राज्य विधान सभा के सदस्यों के अयोग्यता से संबंधित निर्णय संबंधित सदन के अध्यक्ष तथा राज्य सभा और राज्य विधान परिषद के सदस्यों की योग्यता से संबंधित निर्णय संबंधित सदन के सभापति द्वारा किया जाएगा और उनके द्वारा लिया गया निर्णय अंतिम होगा।
दल बदल संबंधी नवीन संविधान संशोधन (91 वें संविधान संशोधन) –:
दल बदल से संबंधित एक और महत्वपूर्ण संशोधन वर्ष 2003 में 91 वें संविधान संशोधन द्वारा किया गया।
यह विधेयक दल बदल रोकने के लिए 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति की सिफारिशें और विधि आयोग की 170 वीं रिपोर्ट तथा संविधान की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग की अनुशंसा के साथ-साथ संसद की स्थाई समिति की सिफारिशों के आधार पर लाया गया था।
दलबदल से संबंधित 52 वें संविधान संशोधन में यह व्यवस्था की गई थी कि किसी दल के एक तिहाई या अधिक सदस्य अलग दल का गठन कर सकते थे या फिर किसी अन्य दल में शामिल हो सकते थे।
91 संविधान संशोधन अधिनियम 2003 में यह व्यवस्था की गई है कि दलबदल करने वाला कोई सांसद या विधायक सदन की सदस्यता के अयोग्य होने के साथ ही साथ अगली बार चुनाव जीतने तक अथवा सदन के शेष कार्यकाल तक (जो भी पहले हो) मंत्री पद पर या लाभ का कोई अन्य पद प्राप्त नहीं कर सकेगा।
दल बदल के लिए विधायकों/ सांसदों की कम से कम एक तिहाई सदस्य संख्या होने की अनिवार्यता को इस विधेयक में समाप्त कर दिया राजनीतिक दलों के पारस्परिक विलय को विधेयक के तहत दलबदल नहीं माना गया है।
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