छत्तीसगढ़ के दक्षिणी भाग में स्थित जनजाति अंचल के नाम से विख्यात बस्तर क्षेत्र में आदिवासियों ने अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह कर दिया था। 1910 में हुए इस विद्रोह का नेतृत्व चमत्कारी व्यक्तित्व वाले Gunda dhur ने किया था।
देश के अन्य भागों के समान ही यहां अंग्रेजों ने अपनी शोषण वादी नीतियों का कुचक्र चला रखा था, दूसरे शब्दों में कहें तो इस विद्रोह की पृष्ठभूमि स्वयं अंग्रेजों और ब्रिटिश सरकार ने ही तैयार कर दी थी।
19वीं सदी के अंत में वनों से आच्छादित यह बस्तर क्षेत्र अंग्रेजों की बर्बरता और आखेट स्थल बन चुका था।
अंग्रेजी प्रशासन ने सामान्य जनों पर कई प्रतिबंध लगाकर उन्हें उनके ही प्राकृतिक साधनों से बेदखल करने का प्रयास कर रहे थे।
अतः शोषण और भेदभाव के विरुद्ध इस क्षेत्र के आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया जिसे हम भूमकाल विद्रोह के नाम से जानते हैं।
अंग्रेजी सरकार के शोषण वादी रवैया से कुपित जनता के लिए अंग्रेजों द्वारा लाए गए भूमि सुधारों के प्रयोग ने आग में घी का काम किया, और आदिवासी समाज अपने जीवन मूल्यों और पद्धति पर हो रहे कुठाराघात और उसमें परिवर्तन की कोशिशों को सहन नहीं कर पाया और विद्रोह के रूप में इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया दी।
वन विभाग के नियम पुलिस, स्कूल और बेगार के द्वारा उनके ऊपर थोपे जा रहे अंग्रेजी कानून और शोषण को वह बर्दाश्त नहीं कर सके और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया।
विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार होने के बाद बस्तर क्षेत्र में आदिवासी संगठित होने लगे और विद्रोह का संदेश गांव गांव पहुंचने लगा इस भूमकाल विद्रोह में लाल मिर्च विद्रोहियों के क्रांतिकारी संदेश से ठीक उसी तरह माध्यम और प्रतीक थे जिस प्रकार 1857 की क्रांति में रोटी और कमल।
Gunda dhur का अंग्रेजी सेना से संघर्ष :–
Gunda dhur ने नेतानार नामक स्थान पर सभी विद्रोहियों को एकत्रित किया जिस में हजारों आदिवासी तीर धनुष टंगिया बंडा, भाला डंडा जैसे हथियारों से लैस होकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध के लिए तैयार हो गए।
उलनार ग्राम में अंग्रेजी सेना और Gunda dhur के नेतृत्व में आदिवासियों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ।
Gunda dhur के युद्ध कौशल और आदिवासियों के साहस के आगे अंग्रेजी कमांडर गेयर ने आत्मसमर्पण का मन बना लिया लेकिन उसने सोनामांझी को अपनी ओर मिला लिया था ।
सोनामांझी ने कुटिलता पूर्वक षड्यंत्र करके आदिवासियों को बेहोश होते तक मदिरा पान कराया और उनके नशे में होने पर उन सभी की हत्या कर दी इससे सोना मांझी ने न सिर्फ कमांडर गेयर की जान बचाई बल्कि इस लड़ाई का पूरा रुख ही बदल दिया।
आदिवासियों की हार हुई Gunda dhur अपने विश्वस्त डिबरीधुर के साथ वहां से भागने में सफल हुए और अंग्रेज उन्हें नहीं पकड़ पाए।
बस्तर क्षेत्र के स्थानीय भाषा में गाए जाने वाले गीतों में इस युद्ध का क्षेत्र के नाम के साथ पूरा वृतांत मिलता है।
इस समस्त घटनाक्रम के पीछे एक और देशभक्त महान व्यक्तित्व का भी योगदान था जिनका नाम लाल कलिंद्र सिंह था।
वह राज परिवार से संबंधित थे बस्तर अंचल में आई जागृति और अंग्रेजों की कुटिलता से लोगों को परिचित कराने में उनका योगदान अभूतपूर्व था ।
Gunda dhur को संगठित होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा उन्होंने ही दी थी।
Gunda dhur के अद्वितीय साहस और नेतृत्व क्षमता ने अंग्रेजों को बैकफुट पर ला दिया था इस युद्ध के बाद अंग्रेज बस्तर में नीतियों के निर्धारण में सावधानी बरतने लगे और साथ ही आदिवासियों से और उनकी परंपरा,मान्यता आदि से जुड़ने का भी प्रयास किया।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस अमर योद्धा का नाम आजादी के वीरों में सुनहरे अक्षरों से लिखा जाना चाहिए था उसे बस्तर क्षेत्र के बाहर कोई नहीं जानता है।
भूमकाल विद्रोह :–
बस्तर क्षेत्र में स्थानीय भाषा में भूमकाल का शाब्दिक अर्थ होता है भूमि का हिलना, कंपन होना या भूकंप।
वर्ष 1910 में बस्तर क्षेत्र के आदिवासियों ने अंग्रेजों की शोषण वादी रवैया के विरुद्ध हथियार उठा लिया था और विद्रोह का बिगुल बजा दिया था इसे ही भूमकाल विद्रोह का नाम दिया गया यह विद्रोह अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के लिए किया गया महासंग्राम था।
इस विद्रोह के कई कारण थे जो निम्न है
1)स्थानीय प्रशासन का उदासीन और शोषण वादी रवैया।
2)अंग्रेजों द्वारा राजा रूद्र प्रताप देव के हाथों में सत्ता नही सौपना।
3) राजवंश से दीवाना न बनाना।
4) बस्तर के वनों को सुरक्षित वन घोषित कर देना।
5)लाल कलिंद्र सिंह और राजमाता सुवर्णकुवर देवी की उपेक्षा।
6)वन उपज का सही मूल्य ना देना।
7) लगान में वृद्धि करना और ठेकेदारी प्रथा के द्वारा शोषण जारी रखना।
8) देसी और घरेलू मदिरा पर पाबंदी लगाना।
9) आदिवासियों से बेगारी कराना और कम मजदूरी देना।
10)नई शिक्षा नीति।
11) बस्तर में बाहरी लोगों का आना और आदिवासियों का शोषण करना।
12) पुलिस कर्मचारियों द्वारा ग्रामीणों पर अत्याचार करना।
13) अधिकारियों कर्मचारियों और शिक्षकों द्वारा आदिवासियों से मुफ्त में मुर्गा और जंगल उपज प्राप्त करना।
14)आदिवासियों को गुलाम समझना।
15) ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासियों को धर्म परिवर्तन करने के लिए बाध्य करना।
अक्टूबर 1909 में दशहरे के दिन राजमाता स्वर्ण कुंवर , लाल कालेंद्र सिंह की उपस्थिति में ताडोकी में आदिवासियों की एक बड़ी सभा हुई जिसमें उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के लिए आदिवासियों को प्रेरित किया।
ताडोकी की सभा में लाल कालेंद्र सिंह ने आदिवासियों में से नेतानार ग्राम के क्रांतिकारी वीर गुंडाधुर को 1910 ईस्वी में हुई क्रांति का नेता बनाया और प्रत्येक परगने से एक एक बहादुर व्यक्ति को विद्रोह का संचालन करने के लिए नेता नियुक्त किया।
लाल कालेंद्र सिंह के मार्गदर्शन में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए एक गुप्त योजना बनाई गई और फिर दोबारा जनवरी 1910 ईस्वी में ताडोकी में पुनः एक और सम्मेलन किया गया जिसमें लाल कालेंद्र सिंह के समक्ष क्रांतिकारियों ने कसम खाई कि वे बस्तर की
स्वाधीनता और अस्मिता के लिए जीवन और धन कुर्बान कर देंगे।
समस्त बस्तर क्षेत्र में 1 फरवरी 1910 को क्रांति की शुरुआत हो गई आदिवासी विद्रोहियों की गुप्त तैयारी से अंग्रेजों के पोलिटिकल एजेंट डी ब्रेट बेखबर था।
विद्रोहियों ने इस विद्रोह में भाग लेने के लिए हर गांव में प्रत्येक परिवार से एक सदस्य को सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया था और उसके पास लाल मिर्च मिट्टी के ढेले धनुष बाण भाले तथा आम की डालियां प्रतीक स्वरूप भेजी थी।
बस्तर के क्षेत्रों में विद्रोह :–
1 फरवरी 1910 को समूचे बस्तर में विद्रोह की शुरुआत हो गई इसके बाद बस्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में विद्रोहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसात्मक कार्रवाई की जिसमें सबसे पहले 2 फरवरी 1910 को विद्रोहियों ने पुसपल बाजार में लूटपाट मचाई।
4 फरवरी को कुकानार के बाजार में बुंडू और सोमनाथ नामक 2 विद्रोहियों ने एक व्यापारी की हत्या कर दी।
5 फरवरी को करंजी बाजार में लूटपाट मचाई गई।
7 फरवरी 1910 को विद्रोहियों ने गीदम में गुप्त सभा आयोजित कर मुरिया राज की घोषणा की थी।
इसके बाद विद्रोहियों ने बारसूर, कोंटा, कुटरु, कुआंकोंडा, मद्देड, भोपालपटनम, जगरगुंडा, उसूर, छोटे डोंगर, कुलुल और बही गांव पर आक्रमण किए।
16 फरवरी 1910 को अंग्रेजों और विद्रोहियों के मध्य इंद्रावती नदी के खड़क घाट पर भीषण युद्ध हुआ इस युद्ध में आदिवासी परास्त हुए खड़क घाट युद्ध में हूंगा माझी ने अपनी वीरता का परिचय दिया।
24 फरवरी 1910 को गंगा मुंडा के संघर्ष में विद्रोहियों की पराजय हुई।
फिर 25 फरवरी 1910 को डाफ़ नगर में विद्रोहियों ने वीर गुंडाधुर के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया।
अबूझमाड़ छोटे डोंगर में आयतु माहरा ने अंग्रेजों के साथ युद्ध लड़ा छोटे डोंगर में विद्रोहियों ने गेयर के साथ भयंकर युद्ध किया था।
सुप्रीम कमांडर गियर ने पंजाब सेना के दम पर विद्रोहियों का दमन कर दिया।
युद्ध में पकड़ बनाने के बाद अंग्रेजों ने 6 मार्च 1910 ईस्वी से विद्रोहियों का दमन करना शुरू कर दिया लाल कालेंद्र सिंह और राजमाता स्वर्ण कुंवर देवी को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया।
अनेक विद्रोहियों को कठोर कारावास की सजा दी गई हजारों आदिवासियों को पकड़ लिया गया और उन्हें कोड़ा लगाने की कार्रवाई अंग्रेजों द्वारा की गई और यह कार्रवाई महीनों तक चलती रही।
अंग्रेजों की यह एक जघन्य और मानव अधिकारों का उल्लंघन करने वाली कार्रवाई थी। 1910 में यह विद्रोह बस्तर में 1 फरवरी से 29 मार्च तक चलता रहा।
भूमकॉल विद्रोह से बस्तर के आदिवासियों ने अंग्रेजी सत्ता को नकार दिया और इस विद्रोह ने बस्तर में ब्रिटिश साम्राज्य की चूले हिला दी।
इस विद्रोह के दमन और समाप्ति के बाद ब्रिटिश शासन ने बस्तर में दीवान बैजनाथ पांडा के स्थान पर जेम्स को नियुक्त किया।
1910 के विद्रोह ने अंग्रेजों की आंखें खोल दी और उन्हें आदिवासियों के प्रति और जागरूक होने के लिए मजबूर कर दिया।
इस विद्रोह की असफलता के कारणों की समीक्षा करें तो इसके प्रमुख कारणों में बस्तर के राजा रूद्र प्रताप देव और कांकेर के राजा कोमल देव ने क्रांतिकारियों का साथ नहीं दिया और सोनामाझी ने आदिवासी सैनिकों के साथ गद्दारी की।
इस विद्रोह में यदि Gunda dhur और उनके सैनिक सफल हो जाते तो इस क्षेत्र से अंग्रेजों की सत्ता समाप्त हो जाती और यह क्षेत्र स्वाधीनता की लड़ाईयों में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाता।
Gunda dhurऔर उनकी सेना के युद्ध कौशल और साहस को बस्तर क्षेत्र में गीतों के माध्यम से अमर बना दिया है।
देश की मिट्टी पर बलिदान होने वाले शहीद हजारों आदिवासी, आजादी की लड़ाई की चर्चा होने पर हमेशा याद किए जाएंगे।