जब संपूर्ण विश्व में सभ्यता का विकास हो रहा था और मनुष्य संग्रहकर्ता के रूप में जंगलों और नदी घाटियों में खानाबदोश जीवन गुजार रहे थे।
उस समय भारतीय उपमहाद्वीप में सभ्यताओं ने पूर्ण विकसित अवस्था में नए-नए धर्मो को जन्म दिया ।
इन्हीं प्राचीन धर्मों में से एक है Jain dharm है, ऐसा माना जाता है, कि सनातन धर्म के बाद सबसे प्राचीन धर्म Jain dharm है।
कुछ प्राचीन इतिहास कार् और धार्मिक ज्ञान रखने वाले विद्वानों के अनुसार यह सनातन धर्म की ही एक शाखा है।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में देश के उत्तरी क्षेत्र में 16 महाजनपदों का अस्तित्व था और प्रचलित धर्मों में Jain dharm काफी लोकप्रिय था परंतु यह अत्यंत प्राचीन है जिसका प्रचार प्रसार उसके 24 तीर्थंकरों ने किया था।
इन तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं।
1) ऋषभ देव
2) अजित देव
3) संभव देव
4) अभिनंद देव
5) सुमति देव
6) पदमप्राभ देव
7) सुपाशर्व देव
8) चंद्रप्राभ देव
9) पुष्पदंत देव (सुविधि)
10) शीतल देव
11) श्रेयंस देव
12) वसुपूज्य देव
13) विमल देव
14) अनंत देव
15) धर्म देव
16) शांति देव
17) कुन्तु देव
18) अर देव
19) माली देव
20) मुनिसुव्रत देव
21) नामि देव
22) नेमिनाथ (अरिष्टनेमी)
23) पाश्र्व् देव
24) वर्धमान महावीर
इनमें से अंतिम दो के अतिरिक्त अन्य तीर्थंकरों के विषय में अधिक जानकारी ऐतिहासिक रूप से प्राप्त नहीं है।
23 वे तीर्थंकर पाश्र्व् देव का जीवन काल् 800 ईसा पूर्व माना जाता है जो वर्तमान वाराणसी के राजा अश्व से तथा रानी रामा के पुत्र थे।
सबसे अंतिम जैन तीर्थंकर जिन्होंने वास्तविक रूप से जैन धर्म की पुनर्स्थापना कि वे थे भगवान वर्धमान महावीर जिनका जन्म 569 ईसा पूर्व में प्राचीन वज्जि गणतंत्र की राजधानी वैशाली में लिक्योशि की एक शाखा ज्ञात वंश में हुआ था।
इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था श्वेतांबर जैनयों के अनुसार उनका विवाह यशोदा नामक कन्या से हुआ था, जिससे उन्हें एक पुत्री प्रियदर्शनी उत्पन्न हुई थी
30 वर्ष की आयु में महावीर ने गृह त्याग कर दिया और 1 वर्ष तक ज्ञान की प्राप्ति के लिए इधर-उधर भटकते रहे ।इस दौरान भिक्षा से जीवन यापन करते थे इसके बाद उन्होंने वस्त्र और भिक्षा पात्र जैसी भौतिक वस्तुओं का त्याग कर दिया और घोर तपस्या में लीन हो गए।
लगभग 12 वर्षों की कठोर तपस्या के पश्चात उन्हें केवल्य् (ज्ञान) प्राप्त हुआ।
तत्पश्चात उन्होंने जीवन भर भ्रमण कर अपने धर्म और मत का प्रचार किया अंत: 72 वर्ष की आयु में 485 ईशा पूर्व में उनकी मृत्यु हो गई।
Jain dharm के प्रमुख सिद्धांत :–
जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं
निवृत्तिमार्ग
Jain dharm भी बौद्ध धर्म के समान निवृत्ति मार्गी है। संसार के समस्त सुख दुख: मुलक है। मनुष्य संपूर्ण जीवन में तृष्णा के पीछे भागता रहता है। वास्तव में यह मानव शरीर क्षणभंगुर है।
Jain dharm इन दुखों से छुटकारा पाने हेतु भौतिक कामनाओं के त्याग पर बल देता है वह मनुष्य को संपत्ति संसार परिवार आदि सब का त्याग करके भिक्षु बनकर एक स्थान पर स्थाई रूप से न रहकर भ्रमण करने पर बल देता है।
ईश्वर
Jain dharm अनिश्वर वादी है वह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है और ईश्वर को सृष्टी कर्ता नहीं मानता है इसका कारण यह है कि ऐसा माननीय से उसे संसार के पापो और कुकर्मों का भी कर्ता मानना पड़ेगा।
सृष्टी
Jain dharm संसार को शाश्वत नित्य अनश्वर और वास्तविक अस्तित्व वाला मानता है पदार्थों का मूल्य विनाश नहीं होता बल्कि उनका रूप परिवर्तन होता है ऐसी मान्यता जैन धर्म में है
कर्म
Jain dharm मनुष्य को स्वयं अपना भाग्य विधाता मानता है अपने सांसारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए उत्तरदाई है उसके सारे सुख दुख कर्म के कारण ही है उसके कर्म पुनर्जन्म का भी कारण है।
मनुष्य आठ प्रकार के कर्म करता है 1 ज्ञानावरण 2 दर्शनावरणीय 3 वंदनीय 4 मोहनीय 5 आयुकर्म 6 नामकर्म 7 गोत्रकर्म और 8 अंतराय कर्म ।
मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म फल का नाश करें और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्म फल संग्रहित ना करें यह लक्ष्य त्रिरत्न के अनुशीलन और अभ्यास से प्राप्त होता है।
त्रिरत्न :–
जैन धर्म में त्रिरत्न है।
1) सम्यक श्रद्धा
2) सम्यक ज्ञान और
3) सम्यक आचरण
सत् में विश्वास सम्यक श्रद्धा है, सद्रूप का शंका वीहीन और वास्तविक ज्ञान सम्यक ज्ञान है तथा बाह्य जगत के विषयों के प्रति सब दुख सुख भाव से उदासीनता ही सम्यक आचरण है।
ज्ञान :–
जैन धर्म में पांच प्रकार के ज्ञान है
(i) मति जो इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होती है
(ii)श्रुति जो सुनकर या वर्णन के द्वारा प्राप्त होती है
(iii) अवधि जो दिव्य ज्ञान है
(iv) मन: पर्याय जो अन्य व्यक्तियों के मन मस्तिष्क की बात जान लेने का ज्ञान है और
(v) कैवल जो पूर्ण ज्ञान है और निग्रंथों को प्राप्त होता है
स्यादवाद या अनेकांतवाद या सप्तभंगी का सिद्धांत :–
जैन धर्म के अनुसार भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से देखे जाने के कारण प्रत्येक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न हो सकता है ज्ञान की यह भिन्नता 7 प्रकार की हो सकती है ।
(1) है। (2) नही है (3) है, और नही है (4) कहा नहीं जा सकता ( 5) है, किन्तु कहा नहीं जा सकता (6) नहीं है, और कहा नहीं जा सकता (7) है ,नहीं है, और कहा नहीं जा सकता । ऐसे ही जैन धर्म में स्यादवाद या अनेकांतवाद के नाम से जाना जाता है।
अनेकात्मवाद :–
Jain dharm आत्मा में विश्वास करता है धर्म की मान्यता है कि भिन्न-भिन्न जीवो में आत्माएं भी भिन्न-भिन्न होती है
निर्वाण :–
Jain dharm का सर्व प्रमुख लक्ष निर्वाण प्राप्ति है जीव के भौतिक अंस का नाश ही निर्वाण है, यह अंस तभी नष्ट होगा जब मनुष्य कर्म फल से मुक्त हो जाएगा तथा संपूर्ण कर्म फल से मुक्ति ही निर्माण प्राप्ति का साधन है।
कायाकलेश :–
जीव के भौतिक तत्वों का अंत करने के लिए काया क्लेश आवश्यक है जिसके लिए तपस्या व्रत और उपवास द्वारा देह त्याग का विधान है।
वस्त्र त्याग :–
23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों को वस्त्र धारण करने की अनुमति दी थी परंतु महावीर स्वामी संपूर्ण वस्त्र त्याग के समर्थक थे
महावीर स्वामी के बाद भी वस्त्र त्याग को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी कुछ जैन मुनि वस्त्र धारण करते थे जबकि कुछ वस्त्र का त्याग किया हुआ था ।महावीर स्वामी के बाद जैन धर्म दो हिस्सों में बट गया।
1)श्वेतांबर और
2) दिगंबर
इस बंटवारे को लेकर भी एक दिलचस्प किस्सा यह है कि महावीर स्वामी के बाद मगध राज्य में भयंकर अकाल पड़ा तो भद्रबाहु के नेतृत्व में जैनियों का एक बड़ा दल श्रवणबेलगोला कर्नाटका प्रस्थान कर गया और दूसरा दल विशाल भद्र के नेतृत्व में मगध में ही रहा।
मगध में रुक गए जैनियों ने श्वेत वस्त्र धारण किए और श्वेतांबर कहलाए जबकि भद्रबाहु के नेतृत्व में कर्नाटका गए जैनियों ने वस्त्र त्याग कर दिया और दिगंबर कहलाए।
पंचमहाव्रत :–
जैन धर्म में भिक्षु के लिए पंच महाव्रतओं की अनिवार्यता निर्धारित की गई है जो निम्न है
1 अहिंसा महाव्रत
जानबूझकर या अनजाने में भी किसी प्रकार की हिंसा नहीं करनी चाहिए किसके लिए ऐसे मार्गों पर चलने ऐसा भोजन करने ऐसे स्थान पर मल मूत्र त्याग करने तथा ऐसी वस्तुओं का उपयोग करने की बात कही गई है जिसमें कीट पतंगों की मृत्यु ना हो साथ ही सदैव मधुर वाणी बोलने की बात कही गई है ताकि वॉचसिक् हिंसा ना हो।
कालांतर में अहिंसा के प्रति जैन धर्म की इसी कठोरता ने इस धर्म के पतन का कार्य किया।और यह धर्म सिमटता गया
2 असत्य त्याग महाव्रत
मनुष्य को सदैव सत्य तथा मधुर बोलना चाहिए इसके लिए बिना सोचे समझे नहीं बोलना चाहिए और क्रोध आने पर मौन रहना चाहिए।
लोभ की भावना जागृत होने पर भी मौन ही रहे भयभीत होने पर भी असत्य नहीं बोले तथा हंसी मजाक में भी असत्य का त्याग करना ही उचित है।
3 अस्तैय महाव्रत
बिना अनुमति किसी भी दूसरे व्यक्ति की कोई वस्तु नहीं लेनी चाहिए और ना ही इसकी इच्छा करनी चाहिए अर्थात चोरी करना पाप कर्म है।
4 ब्राम्हचर्य महाव्रत
भिक्षुओ को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए इसके लिए किसी भी नारी को देखना बात करना संसर्ग् का ध्यान करना नारी की उपस्थिति वाले घर में निवास करना वर्जित है तथा उसे सदा सादा भोजन करना चाहिए।
5 अपरिग्रह महाव्रत
भिक्षुओ को किसी भी प्रकार का संग्रह करने से बचना चाहिए संग्रह से आसक्ति उत्पन्न होती है जो भिक्षुओ को उसके उद्देश्य, मोक्ष से दूर करता है।
पंच अणुव्रत
जैन धर्म में गृहस्थ साधकों के लिए भी पांच व्रतों का पालन करना अनिवार्य है परंतु उनके लिए इन व्रतों की कठोरता को कुछ कम किया गया है।
i) अहिंसाणुव्रत ii )सत्याणुव्रत iii) अस्तेयणुव्रत iv) ब्रम्हचर्यणुव्रत v) अप्रिग्रहणुव्रत
18 पाप कर्म :–
जैन धर्म में निम्न अट्ठारह पाप कर्म की व्याख्या की गई है। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, दोषारोपण, चुगली, असंगत में रति, और संगम् में अरती परनिंदा कपट पूर्णमिथ्या तथा मिथ्यादर्शनरुपी शल्य ।