Shastriya nritya :–
भारत में प्रचलित कुछ प्रमुख Shastriya nritya शैलियों के विषय में जानते हैं। शास्त्रीय नृत्य शैलियां अपने-अपने राज्यों की विशिष्ट पहचान बन चुकी है शास्त्री नृत्य शैलियों को गुरु शिष्य परंपरा के तहत सीखा और अगली पीढ़ी को सिखाया जाता है प्रमुख नृत्य शैलियां और उनकी विशेषताएं निम्न है।
i) भरतनाट्यम
भरतमुनि का नाट्यशास्त्र से संबंधित भरतनाट्यम परंपरागत तथा शैलीनिष्ठ नृत्य है इस Shastriya nritya शैली का विकास दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में मद्रास व तंजौर में विशेष रूप से हुआ है ।
इसे वर्तमान रूप प्रदान करने का श्रेय तंजौर चतुष्टय अर्थात पोंनन्या पिल्ले तथा उनके भाइयों को है इससे पहले यह आट्टम और सादिर के नाम से जाना जाता था जिसे देवदासियाँ मंदिरों में नृत्य करते समय प्रयोग करती थी ।
भरतनाट्यम भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में वर्णित शैलियों के अनुरूप एक गीतिमय काव्य के रूप में जाना जाता है सामाजिक तथा आर्थिक कारणों से इस नृत्य की मध्यकाल में प्रतिष्ठा समाप्त प्राय हो गई थी परंतु रुकमणी देवी अरुंडेल ने इसे पुनः स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
इस नृत्य शैली के अनेक अंग हैं जैसे अल्लारिप्पना जाति स्वरम (स्वर सम्मिश्ररम) शबदम (स्वर एवं गीत) वर्णम (शुद्ध नृत्य एवं अभिनय का सामंजस्य) हल्की शैलियां जैसे पदम और जावलिया (शृंगारिक) और अंतिम तिल्लाना (शुद्ध नृत्य) इस नृत्य की दो प्रमुख शैलियाँ है i) पंडानल्लूर शैली और ii) तंजौर शैली
भरतनाट्यम शैली के कुछ प्रमुख नृत्य कलाकार हैं रुकमणी देवी अरुंडेल, टी वाल सरस्वती, यामिनी कृष्णमूर्ति, सोनल मानसिंह, पद्मा सुब्रमण्यम ,एस के सरोज, रामगोपाल, लीला सैमसंग, मृणालिनी साराभाई, वैजयंती माला बाली, मालविका सरकार आदि।
ii) कुचिपुड़ी
आंध्र प्रदेश के कुचिलपुरा नामक ग्राम से प्रारंभ हुई यह Shastriya nritya शैली तमिलनाडु के भागवत मेला नाटक शैली के समान है, एक प्रमुख नृत्य नाटिका है यह शास्त्रीय नृत्य भरतमुनि के नाटय शास्त्र के सिद्धांतों का पालन करता है तथा इसका उद्देश्य वैदिक एवं उपनिषदों के धर्म व अध्यात्म का प्रचार करना रहा है।
इस शैली का विकास की नारायण तथा सिद्धेश्वर योगी ने किया यह मूर्ति पुरुषों का नृत्य है परंतु हाल में स्त्रियों ने भी इसे अपनाया है किंतु वह प्रायः एकल मिलती ही करती हैं।
कुचिपुड़ी नृत्य नृत्य नाटकों में भाषा का लाभ भरतमुनि कृत्य दशावतार दशम मंडूक सबदम प्रहलाद सबदम श्रीराम पत्ताभिषेकम शिवाजी सबदम आदि उल्लेखनीय है।
नृत्य तथा अभिनय दोनों का मेल होने के कारण इसके नर्तक आंगिक वाचिक सात्विक तथा आहार्य चारों प्रकार से अभिनव का प्रदर्शन एवं अभ्यास करना होता है यह नृत्य नाटक दो प्रकार का होता है एक में मुख्य पात्र पर ही आधारित कहानी होती है जबकि दूसरे में जिसे यक्षगान या वीर नाटक कहते हैं प्रत्येक पात्र के रूप में विभिन्न नट होते हैं।
कुचिपुड़ी के प्रमुख कलाकार हैं वेदांतम सत्यनारायण वेमपत्ती चेन्नासत्यम लक्ष्मी नारायण शास्त्री यामिनी कृष्णमूर्ति राधा रेड्डी राजा रेड्डी स्वयं प्रभु सुंदरी आदि इस शैली के सर्वाधिक प्रसिद्ध गुरु चेन्नासत्यम है।
iii) ओडिसी
भरतमुनि का नाट्यशास्त्र पर आधारित यह नृत्य शैली उड़ीसा में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ही प्रचलित रही है जैन राजा खारवेल इसके कुशल नर्तक तथा संरक्षक थे।
17 वीं शताब्दी में गोतिपुआ नामक एक समूह के बच्चों ने लड़कियों की वेशभूषा पहनकर मंदिरों में इस नृत्य शैली में नृत्य करना आरंभ किया अत्यंत शालीन और सुसंस्कृत मानी जाने वाली इस शैली के दो प्रमुख तत्व भंगी और करण है मूल मुद्राओं को भंगी और नृत्य की मूल इकाई को करण कहा जाता है।
इस नृत्य के कई भाग हैं भूमि- प्रणाम, वास्तु, पल्लवी, अष्टपदी, आदि। 12 वीं सदी के पश्चात वैष्णव धर्म तथा भक्ति आंदोलन से यह काफी प्रभावित हुई और जयदेव द्वारा रचित अष्टपदी इसका एक आवश्यक अंग बन गई।
इस नृत्य के प्रमुख गुरुओं में मोहन महापात्र, केलुचरण महापात्र, पंकज चरण दान, हरे कृष्ण बेहरा, मायाधर रावत, आदि उल्लेखनीय है जबकि इसके कलाकारों में संयुक्ता पाणिग्रही, सोनल मानसिंह, किरण सहगल, माधवी मुदगल, रानी कर्ण, कालीचरण पटनायक, इंद्राणी रहमान, शेरों लोवेन (संयुक्त राज्य अमेरिका) मिर्ता बार्बी (अर्जेंटीना) आदि प्रसिद्ध है।
iv) कथकली
केरल की सर्वाधिक परिष्कृत वैज्ञानिक एवं विस्तृत नियमावली वाली नृत्य की शैली है इसका वर्तमान स्वरूप तो पिछले 300 वर्षों में ही विकसित हुआ है परंतु इसका आरंभ और भी पहले हुआ था ।
कृष्ण अट्टम और रामानअट्टम जैसी प्राचीन शैलियों के मूल तत्व के समावेश के कारण ही इसे शास्त्रीय नृत्य शैली माना जाता है यह एक उत्तेजक नृत्य है जिसमें कलाकार के शरीर के प्रत्येक अंग पर पूरे नियंत्रण के साथ-साथ भाव की गहरी संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है ।
इसकी कथाएं महाकाव्य तथा पुराणों पर आधारित होती है अभिनय करने वाला स्वयं तो कुछ नहीं बोलता परंतु एक जटिल और वैज्ञानिक ढंग से निर्मित मुद्रा और पद संचालन द्वारा भाव की अभिव्यक्ति बैकग्राउंड में गाए जा रहे पाठ के साथ तालमेल बिठाते हुए करता है कथाओं के पात्र देवता दानव या महामानव होते हैं।
नृतक की वेशभूषा आभूषण तथा मुख्य सज्जा अत्यंत आकर्षक होती है पौराणिक नायकों की मुख सज्जा हरे रंग से तथा खलनायक की मुख्य सज्जा में हरे रंग के बीच में लाल रंग के जैसे गोले बनाए जाते हैं।
वर्तमान कथकली का प्रेरणा स्रोत कवि वल्लतोल को माना जाता है जिन्होंने अनेक पांडुलिपियों की रचना की ।
इसके प्रमुख कलाकार हैं वल्लतोल नारायण मैनन, उदय शंकर, कृष्ण नायर, शांता राव, मृणालिनी साराभाई, आनंद शिवरामन, कृष्णन कुट्टी आदि। इस नृत्य शैली का सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षण संस्थान भारत पूझा स्थित केरल कलामंडलम है।
v) कत्थक
ऐसा माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति उत्तर भारत के मंदिरों के पुजारियों द्वारा महाकाव्यों की कथा बांचते समय स्वांग और हाव-भाव प्रदर्शन के फल स्वरुप विकसित हुई है।
15वीं और 16वीं शताब्दी में राधा कृष्ण उपाख्याना या रासलीला की लोकप्रियता से कत्थक का और विकास हुआ मुसलमान शासकों के काल में मंदिरों से निकलकर राज दरबारों में पहुंचा जयपुर बनारस राजगढ़ तथा लखनऊ इसके मुख्य केंद्र थे ।
लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के काल में कत्थक अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया बीसवीं सदी में लीला सोखे के प्रयासों से यह और अधिक लोकप्रिय हुआ।
नियमबद्ध एवं विशुद्ध शास्त्रीय नृत्य शैली है जिसमें पूरा ध्यान लय पर दिया जाता है, आधार स्वरूप की अवस्थाओं को तत्कार, पलटा, तोड़ा, तथा आमद के नाम से जाना जाता है इस नृत्य शैली में पैरों के थिरकन पर विशेष ध्यान दिया जाता है उल्लेखनीय है कि इस नृत्य में घुटने नहीं मुड़ते हैं।
इसके कलाकारों में प्रमुख हैं बिंदादीन महाराज, कालका प्रसाद, अच्छन महाराज, शंभू महाराज ,लच्छू महाराज, बिरजू महाराज, सुखदेव महाराज, नारायण प्रसाद, सितारा देवी, गोपीकृष्ण शोभना नारायण, मालविका सरकार, भारती गुप्ता, दमयंती जोशी, चंद्रलेखा आदी।
vi)मणिपुरी
उत्तर पूर्व भारत के मणिपुर राज्य में प्रचलित Shastriya nritya शैली 15 वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में निवास करने वाले वैष्णव धर्म के अनुयायियों के प्रयासों का परिणाम सी यह नृत्य शैली भक्ति तथा त्याग पर विशेष बल देती है ।
मूल रूप से यह Shastriya nritya शैली अनुष्ठान प्रकृति की है जो पौराणिक कथाओं तथा अनुसूचियों से प्रेरित है ।
वर्तमान समय में इसे पुनर्जीवित करने का श्रेय मणिपुर के राजा भाग्यचंद्र 18 वीं सदी को है इस नृत्य शैली में राधा कृष्ण की रास लीलाओं का आयोजन किया जाता है जो जीवात्मा और परमात्मा के अटूट संबंध का परिचायक है।
इस नृत्य शैली में 64 प्रकार के रागों का प्रदर्शन किया जाता है नृत्यक कलाकार रंग-बिरंगे वस्त्र धारण करते हैं इस नृत्य में पुंग अर्थात ढोल अत्यंत महत्वपूर्ण होता है इस नृत्य के कई रूप चोलोम हैं जैसे पुंग चोलोम, करताल चोलोम, ढोल चोलोम, आदि।
रविंद्र नाथ टैगोर ने इस Shastriya nritya शैली के शांतिनिकेतन में अध्ययन की सुविधा प्रदान कर इसे लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
प्रमुख कलाकार हैं गुरु अमली सिंह आतम्ब सिंह नंलकुमार सिंह, झावेरी बहने (दर्शन, नैना, स्वर्णा, तथा रंजना झावेरी) सविता मेहता, कलावती देवी, थम्बल यामा, रीता देवी, निर्मला मेहता, चारु माथुर, साधन बोस, विपिन सिंह, सिंहजीत सिंह, अभुवी सिंह, सोनारीक सिंह, सूर्यमुखी देवी, गोपाल सिंह आतोम्बा सिंह आदि।
vii) मोहनी अट्टम
यह केरल राज्य में प्रचलित एक देवदासी परंपरा से आया हुआ शास्त्रीय नृत्य है इस नृत्य शैली को एकल नृत्य शैली माना जाता है जिससे कलाकार की वेशभूषा सादी परंतु आकर्षक होती है प्रारूप में यह नृत्य भरतनाट्यम जैसा ही है।
इस नृत्य कला का सर्वप्रथम उल्लेख 16 वीं सदी में मषमंगलम नारायण नंबूदिरि की कृति व्यवहारमाला में मिलता है। 19वीं सदी में भूतपूर्व त्रावणकोर के शासक स्वाति तिरुनाल ने इसे काफी प्रोत्साहन दिया।
कवि वल्ल तोल ने इसका पुनरुद्धार करके 1930 में पुनः स्थापित कर केरल मलामंडपम के माध्यम से प्रतिष्ठित स्थान दिलाया कलामंडपम में कल्याणी अंम्मा ने इस नृत्य शैली को पुनर्जीवित किया।
इस नृत्य के अन्य प्रमुख कलाकार हैं भारती शिवाजी, रागिनी देवी, तंकमणि शेषन मुजूमदार, हेमा मालिनी, शांताराव, तारा निडूगाड़ी, गाता नायक आदि।
viii) छऊ नृत्य
बिहार उड़ीसा तथा पश्चिम बंगाल में प्रचलित एक प्रमुख लोक नृत्य है जिसकी तीन शाखाएं हैं। i)सरायकेला ii) मयूरभंज और iii) पुरुलिया।
सिर्फ सरायकेला तथा पुरुलिया छाऊ में ही मुखोटो का प्रयोग किया जाता है यह मुख्यता पुरुषों का नृत्य है परंतु अब स्त्रियों ने भी इसे अपना लिया है यह नृत्य शैली काफी उछल कूद से पूर्ण होती है जो किसी मार्शल आर्ट युक्त नृत्य का आभास कराती है।
वार्षिक सूर्य समारोह या वसंत उत्सव के अवसर पर शिव पार्वती की आराधना हेतु इस नृत्य महोत्सव का आयोजन किया जाता है इस शैली में मयूर नृत्य सागर नृत्य बसंत नृत्य आदि का प्रचलन है नृत्य के साथ गाय नहीं होता है लेकिन ढोल बांसुरी तथा माधुरी बजाए जाते हैं ।
इस नृत्य को शास्त्रीय स्वरूप प्रदान करने में राजा विजय प्रताप सिंह की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
xi) चक्यारकुन्तु
केरल राज्य में आर्यों द्वारा प्रारंभ किए गए इस Shastriya nritya शैली का आयोजन केवल मंदिरों में ही किया जाता है और सिर्फ सवर्ण हिंदू ही इसे देख सकते थे नृत्य स्थल को कुतुम्बलम कहते हैं स्वर के साथ कथा पाठ किया जाता है। जिस के अनुरूप चेहरे और हाथों से भावों की अभिव्यक्ति की जाती है इसके साथ सिर्फ झांज और तांबे का बना चमड़ा मढ़ा ढोल जैसा एक वाद्य यंत्र बजाया जाता है।
x) ओट्टनतुलल्लू
कुंचन नांबियार द्वारा विकसित एकल नृत्य शैली है जिसका प्रचलन केरल राज्य में है सरल मलयालम भाषा में वार्तालाप शैली में द्वारा सामाजिक अवस्था वर्ग भेद अमीर गरीब का भेद मनमौजीपन आदि को दर्शाया जाता है।
इसलिए जनसाधारण में काफी लोकप्रिय नृत्य शैली है।
xi) कृष्णनआट्टम
लगातार 8 रातों तक चलने वाली इस Shastriya nritya शैली में भगवान कृष्ण के संपूर्ण चरित्र का चित्रण किया जाता है यह कथकली से मिलती-जुलती शैली का नृत्य है और केरल राज्य में प्रचलित है।
xii) कुड़ियाट्टम
यह एक लंबे समय तक चलने वाली नाटिका है जो कुछ दिनों से लेकर कई सप्ताह तक आयोजित की जा सकती है मनोरंजन के साथ-साथ उपदेशात्मक भाव इस नृत्य शैली में है इसमें उपदेश देने वाले विदूषक की भूमिका प्रमुख होती है जो सामाजिक बुराइयों की ओर ध्यान आकर्षित करता है ।
xiii) यक्षगान
कर्नाटक का ख्याति प्राप्त मूलत ग्रामीण प्रकृति का नृत्य है जो नृत्य और नाटक का मिश्रण है इसकी आत्मा गान अर्थात संगीत है लगभग 400 वर्षों से को आधार बनाया जाता है इसकी भाषा कन्नड़ है परंतु वेशभूषा कथकली के समान ही है इसमें भी विदूषक तथा सूत्रधार मुख्य भूमिका में होते हैं।
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