Vaisheshik darshan kya hai :-
Vaisheshik darshan वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करने के कारण आस्तिक दर्शन कहा जाता है।
न्याय तथा Vaisheshik darshan एक दूसरे पर निर्भर है इसलिए इन्हें समान तंत्र भी कहते हैं दोनों ने मोक्ष की प्राप्ति को जीवन का परम लक्ष्य कहा है।
परंतु न्याय दर्शन के प्रमाण शास्त्र और तर्कशास्त्र के विपरीत Vaisheshik darshan तत्व शास्त्र का प्रतिपादन करता है।
Vaisheshik darshan में पदार्थों की मीमांसा हुई है पदार्थ का अर्थ है जिसका नामकरण हो सके यह दर्शन पदार्थ को दो भागों में बाटता है।
भाव पदार्थ और अभाव पदार्थ भाव पदार्थ छह द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष और संवाद अभाव पदार्थ में अभाव को रखा गया है जिसकी व्याख्या वैशेषिक सूत्र नहीं करता द्रव्य 9 प्रकार के होते हैं।
1) पृथ्वी
2) अग्नि
3) वायु
4) जल
5) आकाश
6) दिक
7) काल
8) आत्मा और
9) मन
इनमें से प्रथम पांच को पंचभूत कहा जाता है जिस की अनुभूति इंद्रियों द्वारा होती है।
Vaisheshik darshan के प्रवर्तक कौन हैं :–
Vaisheshik darshan के प्रणेता कणाद या उलूक थे इस दर्शन में विशेष नामक पदार्थ की व्याख्या होने के कारण ही इसे वैशेषिक दर्शन कहा जाता है।
Vaisheshik darshan की व्याख्या :–
Vaisheshik darshan में आत्मा उस पदार्थ को कहा गया है जो चैतन्य या ज्ञान का आधार होता है आत्मा दो प्रकार की है।
जीवात्मा और परमात्मा, जीवात्मा की चेतना सीमित है जबकि परमात्मा की असीमित। जीवात्मा अनेक परंतु परमात्मा एक है।
परमात्मा ईश्वर का ही दूसरा नाम है।ज्ञान, सुख-दुख, शिक्षा, धर्म, अधर्म आदि आत्मा के विशेष गुण हैं।आत्मा अमर अनादि और
अनंत है। असीमित चेतना वाले ईश्वर ने विश्व की सृष्टि की, वेदों की रचना की। वह जीवात्मा को उसके कार्यों के अनुसार सुख दुख देता है अर्थात वह कर्म फल दाता है।
आत्मा की सत्ता और ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए वैशेषिक दर्शन में अनेक युक्तियों का प्रयोग किया गया है।
विश्व को कार्य मानकर इसके कारण के रूप में ईश्वर की स्थापना हुई है ईश्वर को अदृश्य नियम का संचालक माना गया है।
Vaisheshik darshan का दूसरा पदार्थ गुण है जो कर्म में निवास करता है अतः गुण अकेला नहीं पाया जा सकता साथ ही गुण, ‘गुण’ से शून्य होता है।
उसमें कर्म की गति का अभाव है। Vaisheshik darshan में 24 प्रकार के गुण माने गए हैं।
Vaisheshik darshan का तीसरा पदार्थ कर्म है, कर्म मूर्त द्रव्यों का गतिशील व्यापार है। पंच मूर्त द्रव्यों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और मन में ही कर्म का निवास होता है।
सर्वव्यापी द्रव्य की कर्म का निवास नहीं होता क्योंकि वह स्थान परिवर्तन नहीं करते इस प्रकार कर्म द्रव्य का सक्रिय रूप होता है (जबकि गुण द्रव्य का निष्क्रिय रूप है)
गुरुत्व, तरलता, भावना तथा संयोग चार उपाधियों के कारण कर्म का होना प्रमाणित होता है। वैशेषिक दर्शन पांच प्रकार के कर्म मानता है उत्क्षेपन अवक्षेपन आकुंचन प्रसारण तथा गमन।
‘सामान्य’ Vaisheshik darshanका चौथा पदार्थ है। यह वह पदार्थ है जिसके कारण एक ही प्रकार के विभिन्न व्यक्तियों को एक जाति के अंदर रखा जाता है।
Vaisheshik darshan का पांचवा पदार्थ ‘विशेष’ है, जो सामान्य के ठीक विपरीत है। यह नित्य द्रव्य कि वह विशिष्टता है जिससे वह अन्य नित्य द्रव्य से पहचाना जाता है।
इस दर्शन का छठा पदार्थ ‘समवाय’ है। समवाय वह संबंध है जिसके कारण दो पदार्थ एक दूसरे में समवेत रहते हैं।
इन दोनों पदार्थों का एक दूसरे से पृथक होकर अस्तित्व ही नहीं रह सकता जैसे गुण और द्रव्य, कर्म और द्रव्य आदि।
वैशेषिक दर्शन का सातवां पदार्थ ‘अभाव’ है। अभाव का अर्थ किसी वस्तु विशेष की किसी विशेष काल में किसी विशेष स्थान में अनुपस्थिति से है। अभाव का तात्पर्य शून्य नहीं है।
वैशेषिक दर्शन, विश्व का निर्माण परमाणुओं से हुआ मानता है, यह परमाणु चार प्रकार के हैं। पृथ्वी के परमाणु, जल के परमाणु, वायु के परमाणु और अग्नि के परमाणु। इसलिए वैशेषिक का सृष्टि संबंधी मत “परमाणु वाद का सिद्धांत” कहलाता है।
वैशेषिक दर्शन, के अनुसार परमाणु शाश्वत है। यह निष्क्रिय तथा गति हीन है। जीव आत्माओं का अदृश्य अथवा ईश्वर ही परमाणुओं को गति प्रदान करता है और इसी गति से सृष्टि और प्रलय होता है।