न्याय दर्शन

न्याय दर्शन क्या है :–

न्याय दर्शन का परम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है जिस की अनुभूति तत्वज्ञान अर्थात वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को जानने से ही हो सकती है।

इसी उद्देश्य से न्याय दर्शन में 16 पदार्थों की व्याख्या की गई है 1) प्रमाण 2) प्रमेय 3) संशय 4) प्रयोजन 5)दृष्टांत 6) सिद्धांत 7)  अवयव 8) तर्क 9) निर्णय 10) वाद 11) जल्प  12) वितंडा 13)  हेत्वाभास 14)  छल 15) जाति और 16) निग्रह स्थान।

न्याय दर्शन में ज्ञान को बुद्धि या उपलब्धि के अर्थ में प्रयोग किया गया है। व्यापक अर्थ में ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ के ज्ञान का सूचक है।

जबकि संकुचित अर्थ में ज्ञान, यथार्थ ज्ञान का ही एकमात्र बोध कराने वाला होता है। ज्ञान का कार्य ज्ञेय वस्तुओं को अवगत कराना है और ज्ञान ही हमारे कार्य का आधार है ।

मनुष्य सही या गलत ज्ञान के आधार पर ही कार्य करता है, साथ ही ज्ञान आत्मा का गुण है बिना आत्मा के ज्ञान संभव नहीं है।

यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहा गया है वस्तु को उसी रूप में ग्रहण करना जिस रूप में वस्तु है उसे ही प्रमा कहा गया है। इसके विपरीत अयथार्थ अनुभव को अप्रमा कहा गया है संशय, भ्रम तथा तर्क अप्रमा है।

किसी वस्तु मैं ऐसे गुणों की कल्पना करना जिनका वस्तु में अस्तित्व नहीं है अप्रमा ज्ञान है। प्रमा की प्राप्ति का साधन प्रमाण कहलाता है प्रमाण चार प्रकार के होते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान शब्द और उपमान।

प्रत्यक्ष के दो भेद किए जाते हैं। (i) लौकिक और (ii)अलौकिक। वस्तु का इंद्रिय के साथ साधारण संपर्क लौकिक प्रत्यक्ष कहलाता है, तथा इसके विपरीत इंद्रियों का विषयों के साथ और असाधारण ढंग से संपर्क अलौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है।

Nyay darshan ke pravartak kaun hai :–

न्याय दर्शन का प्रतिपादन महर्षि गौतम द्वारा किया गया था। दर्शन को तर्कशास्त्र, प्रमाण शास्त्र, वाधविद्या आदि नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन का ज्ञान गौतम मुनि द्वारा रचित न्याय सूत्र नामक ग्रंथ द्वारा होता है।

कालांतर में वात्स्यायन, वाचस्पति मिश्र, उदयनाचार्य आदि ने इस दर्शन को और समृद्धि प्रदान की।

न्याय दर्शन की व्याख्या :–

न्याय दर्शन ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है यह ईश्वर को चेतन से युक्त आत्मा कहता है। आत्मा के दो प्रकार है जीवात्मा और परमात्मा, परमात्मा को ही ईश्वर कहा जाता है परंतु ईश्वर जीवात्मा से पूर्णता भिन्न है, अलग है।

जहां ईश्वर का ज्ञान नित्य है अनंत है, वही जीव आत्मा का ज्ञान अनित्य, आंशिक और सीमित है। ईश्वर सभी प्रकार की पूर्णता से युक्त है जबकि जीवात्मा अपूर्ण है। ईश्वर ना बद्ध है ना मुक्त है।

ईश्वर विश्व का सृजन कर्ता, पालक और संहारक है। वह अनंत है और अनंत गुणों से युक्त है उसके अनंत गुणों में से 6 गुण प्रमुख है

1) अधिपत्य,

2) वीर्य ,

3) यश,

4) श्री,

5) ज्ञान और

6) वैराग्य।

ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए न्याय दर्शन कारण पर आधारित नैतिक वेदों पर आधारित तथा श्रुतियों से प्राप्त ज्ञान पर आधारित तर्क प्रस्तुत करता है।

न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा एक द्रव्य है। सुख-दुख राग द्वेष इच्छा प्रयत्न ज्ञान धर्म अधर्म आदि आत्मा के गुण हैं ।

वह स्वरूपतः अचेतन है तथा उसमें चेतना का संचार उस विशेष परिस्थिति में ही होता है जब आत्मा का मन के साथ मन का इंद्रियों के साथ तथा इंद्रियों का बाह्य जगत के साथ संपर्क होता है।

इस प्रकार चैतन्य आत्मा का आगंतुक गुण है। आत्मा एक ज्ञाता है, भोक्ता है, कर्ता है जो सुख दुख का अनुभव करता है। वह नित्य अविनाशी है वह कर्म नियम के अधीन है, वह विभु है, आत्माओं की संख्या अनंत है प्रत्येक शरीर में एक भिन्न आत्मा रहती है।

आत्मा शरीर इंद्रिय और मन से भिन्न है परंतु अज्ञान के कारण वह इनसे अपने को अभिन्न समझती है यही बंधन है। जिसके कारण वह दुखों के अधीन रहता है बंधन का अंत ही मोक्ष है इस प्रकार शरीर और इंद्रियों के बंधन से आत्मा का मुक्त होना ही मोक्ष है।

गौतम दुख के सम्पूर्ण समापन को ही मोक्ष कहते हैं। उल्लेखनीय है कि मोक्ष की अवस्था में आत्मा के दुखों के साथ-साथ उसके सुखों का भी अंत हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए न्याय दर्शन श्रवण मनन और निदिध्यासन पर बल देता है।

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