संगीत मनुष्य के मनोभावों लय एवं ताल बद्ध अभिव्यक्ति है। मनुष्य की सभ्यता के आरंभ से ही संगीत मनुष्य के मनोरंजन का सर्व प्रमुख साधन रहा है संगीत उन प्रमुख साधनों में से एक है जो मनुष्य को पशु से अलग करते हैं।
इस लेख के माध्यम से हम आज जाने का प्रयास करेंगे कि भारतीय संगीत क्या है उसकी क्या विशेषताएं हैं और उसकी उत्पत्ति कैसे हुई और समय के साथ भारतीय संगीत कैसे विकसित हुआ और साथ ही इसके आयाम क्या है।
प्राचीन काल से ही भारतीय संगीत अपनी मधुरता लयबद्धता तथा विविधता के लिए विख्यात है। वर्तमान भारतीय संगीत का जो स्वरूप हमारे सामने है वह आधुनिक युग का नहीं है बल्कि यह भारतीय इतिहास के प्रारंभ के साथ ही जुड़ा हुआ है।
वैदिक काल में ही भारतीय संगीत का ज्ञात बीजारोपण हो चुका था।
सामवेद वैदिक मंत्रों का संग्रह है जो गाए जाते हैं वैदिक काल से ही ईश्वर आराधना हेतु भजनों के प्रयोग की परंपरा रही है यहां तक की यज्ञ के अवसर पर भी समूह गान होते थे।
यह महत्वपूर्ण है कि, प्राचीन काल की अन्य कलाओं के समान ही भारतीय कला भी धर्म से ही उत्पन्न और प्रभावित हुई है। वास्तव में देखा जाए तो भारतीय संगीत की उत्पत्ति धार्मिक प्रेरणा और स्रोत से ही हुई है।
कालांतर में यह धर्म की सीमा को तोड़कर लौकिक जीवन से संबंधित होती चली गई और इसी के साथ नृत्य वाद्य तथा गीतों के नए-नए रूपों का आविर्भाव होता गया।
शनै शनै नाटक भी संगीत का एक हिस्सा बन गया समय के साथ संगीत की विभिन्न विधाएं विकसित होती गई नए-नए राग नए वाद्य यंत्र और नए नए कलाकार इसमें अपना योगदान देते चले गए ।
भारतीय संगीत जगत अनेक महान कलाकारों के योगदान के परिणाम स्वरूप ही इतना बृहद और विशाल आकार ग्रहण कर सका है।
संगीत क्या है :–
संगीत क्या है इस प्रश्न का उत्तर भारत के कीर्तिमान संगीतकारों ने विविध रूप से देने का प्रयास किया है संगीत रत्नाकर के अनुसार
“गीत वाद्य तथा नृतं त्र्यं संगीतमुच्यते”
अर्थात गीत, वाद्य और नृत्य तीनों का समुच्चय ही संगीत है, परंतु भारतीय संगीत का अध्ययन करने पर यह आभास होता है कि इन तीनों में गीत की ही प्रधानता रही है तथा वाद्य और नृत्य गीत के अनुगामी रहे हैं। एक अन्य परिभाषा के अनुसार
“सम्यक् प्रकारेण यद गीयते तत्संगितम”
अर्थात सम्यक प्रकार से जिसे गाया जा सके वही संगीत है अन्य शब्दों में स्वर ताल शुद्ध आचरण हावभाव और शुद्ध मुद्रा में गाए जाने वाले विषय को भी संगीत कहा जाता है, वास्तव में स्वर और लय ही संगीत का अर्थात गीत वाद्य और नृत्य का आधार है।
संगीत की उत्पत्ति :–
संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है वेद का मूल मंत्र है “ॐ “(ओम ) ओम शब्द तीन शब्दो के मेल से बना है अ उ म जो क्रमशः ब्रह्मा अर्थात सृष्टिकर्ता विष्णु जो जगत पालक हैं और महेश संहारक की शक्तियों के प्रतीक है ।
इन तीनों अक्षरों को ऋग्वेद सामवेद यजुर्वेद से लिया गया है संगीत के सात स्वर षडज (सा) ऋषभ (र) गांधार (गा) आदि वास्तव में “ॐ” (ओम ) या ओंकार ने ही अंतर्निहित है साथ ही स्वर तथा शब्द की उत्पत्ति भी :ॐ” के द्वारा ही हुई है।
मुखारविंदु उसे उच्चारित शब्द ही संगीत में नाद का स्वरूप होता है, इस प्रकार ॐ ही संगीत की सृष्टि माना जाता है इसीलिए कहा गया है कि जो साधक ॐ साधना करने में निपुण होता है वही संगीत को यथार्थ रूप से ग्रहण कर सकता है।
यदि दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ ढूंढे तो इस का तात्पर्य यही है कि ओम अर्थात संपूर्ण सृष्टि का एक अंश हमारी आत्मा में निहित है और संगीत उसी आत्मा की प्रतिध्वनि है अतः संगीत की उत्पत्ति हृदयगत भाव से ही मानी जाती है।
प्राचीन समय से ही संपूर्ण विश्व की सभ्यता ने संगीत के महत्व को स्वीकार किया है प्राचीन सभ्यता के अन्य केंद्रों जैसे यूनान रोम की आदि में भी संगीत का समाज में उचित स्थान था।
महान दार्शनिक प्लेटो का कथन है कि समस्त विज्ञानों का मूलाधार संगीत है अर्थात इसकी उत्पत्ति विश्व की वर्तमान आसुरी प्रवृत्तियों के निराकरण के उद्देश्य से ही ईश्वर द्वारा हुआ है।
भारतीय विद्वान भी संगीत को अत्यंत पवित्र पूज्य और श्रेष्ठ मानते रहे हैं संगीत के माध्यम से चारों पुरुषार्थ अर्थात धर्म अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के ईश्वर आराधना में महत्व को स्वीकार करते हैं श्रीमद्भभगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है वेदाना सामवेदोसमि —अर्थात वेदों में संगीत त्रुटि साम वेद मेरा ही स्वरूप है संगीत की महत्ता इस बात से ही स्पष्ट होती है कि प्राचीन काल में महर्षि व आचार्य ने इसे पंचम वेद या गंधर्व वेद की संज्ञा दी है।
संगीत प्रकृति से निकली वह देवी शक्ति है जिसका संबंध मनुष्य की आत्मा से है संगीत की सृष्टि नाथ से हुई है नाथ अर्थात ब्रह्म और मनुष्य का अंतःकरण ब्रह्म स्वरूप ही है।
संगीत सिर्फ भौतिक सुख ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक और आत्मिक आनंद का भी स्रोत है और इसी जीवन में चारों पुरुषार्थ ओं की प्राप्ति करने में समर्थ भी है स्वर साधना में लीन व्यक्ति वास्तव में ब्रह्म के उपासक होते हैं इसलिए संगीत को समस्त ललित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
भारतीय दर्शन के अनुसार संगीत का वास्तविक थे आत्म कल्याण भगवत उपासना और मोक्ष की प्राप्ति है इन लक्ष्यों की प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन संगीत के अलावा और कोई नहीं हो सकता है इसलिए ही कहा गया है।
“पूजात् कोटिणुणं स्त्रोत स्तोत्रातकोटिगुणो जप: ।
जपातकोटिगुणं गानं गानात्परतरं नहिं ।।”
अर्थात पूजा से करोड़ों गुना श्रेष्ठ स्रोत है, स्रोत से करोड़ गुना श्रेष्ठ जप है, और जप् से करोड़ गुना श्रेष्ठ गान है, अतः गायन से बढ़कर उपासना का कोई अन्य साधन नहीं है।
संगीत के रूप :–
वैदिक काल से ही भारतीय संगीत के दो रूप प्रचलित थे पहला मार्गी और दूसरा देशी। कालांतर में मार्गी संगीत लुप्त होता गया।
साथ ही देशी संगीत दो रूपों में विकसित हुआ शास्त्रीय संगीत और दूसरा लोक संगीत शास्त्रीय संगीत शास्त्रों पर आधारित तथा विद्वानों व कलाकारों के अध्ययन व साधना का परिणाम था यह संगीत अत्यंत नियम बाद तथा श्रेष्ठ संगीत था।
दूसरी ओर लोक संगीत काल और स्थान के अनुरूप स्वच्छंद वातावरण में स्वाभाविक रूप से विकसित होता गया लोक संगीत अधिक विविधता पूर्ण तथा हल्का-फुल्का और मनोरंजक होता है।
संगीत का विकास :–
भारतीय संगीत के विकास को हम भारतीय इतिहास के विकास के समानांतर में समझ सकते हैं। जिस प्रकार से भारतीय इतिहास को तीन भागों में बांटा जा सकता है, उसी तरह से संगीत के विकास को भी तीन भागों में बांटा जा सकता है।
i) प्राचीन काल मे संगीत का विकास
ii) मध्य काल मे संगीत का विकास
iii) आधुनिक काल मे संगीत का विकास
i) प्राचीन काल मे संगीत का विकास
मूल रूप से वैदिक ऋचाओं से उत्पन्न संगीत निरंतर विकसित होता रहा है ऋग्वेद में गायन से जीविका निर्वाह करने वाले गंधर्व का उल्लेख हुआ है।
गायन वादन तथा नृत्य में सिद्धहस्त इन्हीं गंधर्व ने बाद में चलकर गंधर्व वेद की रचना की थी महाकवि कालिदास ने भी वीणा, वेणु, मृदंग, शंख, दुदुम्भी आदि वाद्य यंत्रों का उल्लेख किया है।
विक्रम संवत के प्रारंभिक वर्षों में भरत मुनि द्वारा रचित नाट्य शास्त्र भारतीय संगीत तथा नाट्य विद्या दोनों का ही आदि ग्रंथ माना जाता है।
इसमें संगीत से संबंधित अत्यंत सूक्ष्म विवरण दिए गए हैं इससे स्पष्ट है कि विक्रमी संवत के आरंभ के समय तक भारत में गायन वादन और नृत्य कला का विकास हो चुका था।
प्रारंभ में यह तीनों एक साथ ही आयोजित किए जाते थे मंदिरों में पूजन के समय गीत नृत्य तथा वाद्य एक साथ प्रयुक्त हो रहे थे यह परंपरा काफी समय तक चलती रही ।
आधुनिक संदर्भ में शुद्ध गायन संबंधी ग्रंथ 11वीं शताब्दी के बाद ही रचे गए हैं लोचन कवि की रागतरंगिणी तथा उससे लगभग एक शताब्दी के बाद शार्गदेव द्वारा रचित ग्रंथ इस संदर्भ में संगीत के आदि ग्रंथ कहे जा सकते हैं।
इसके बाद 16 से 18 वीं सदी के बीच संगीत के अनेक ग्रंथ रचे गए हैं जैसे सोमनाथ का रागविवोध, दामोदर मिश्र का संगीत दर्पण, होबल का संगीत पारिजात, भवभट्ट का अनुपमविलास अनूपांकुश तथा अनूपतंत्र आदि।
ii) मध्य काल मे संगीत का विकास
इस काल को हम मुस्लिम काल के रूप में भी समझ सकते हैं इस काल में अरब से आए हुए आक्रमणकारियों ने देश में अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी और इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार जोरों पर था।
इस्लाम धर्म में संगीत को निकृष्ट और धर्म विरुद्ध समझने के कारण इस युग के अधिकांश मुस्लिम शासकों ने इसे विशेष प्रोत्साहन नहीं दिया फिर भी अलाउद्दीन खिलजी के काल में अमीर खुसरो ने संगीत में अनेक नवीन प्रयोग किए।
मुगल शासकों में अकबर के काल में संगीत के क्षेत्र में कुछ उन्नति अवश्य हुई संगीत सम्राट तानसेन ने संगीत को नए आयाम दीए।
इसके बाद अवध के सिया नवाबों के दरबार में संगीत को विशेष प्रोत्साहन दिया गया यह नवाब संगीत को सिर्फ पसंद ही नहीं करते थे बल्कि वे स्वयं भी संगीत की विभिन्न विधाओं में पारंगत थे ।
उन्हीं के काल में मोहम्मद रजा ने नग्म-ए-असफी की रचना की जिसमें पहली बार शुद्ध बिलावल की व्याख्या की गई थी 19वीं शताब्दी का एक अन्य प्रसिद्ध संगीत ग्रंथ है कृष्णानंद व्यास द्वारा रचित संगीतकल्पमुद्रम।
iii) आधुनिक काल मे संगीत का विकास
19वीं सदी में भारत में एक नवीन सांस्कृतिक पुनर्जागरण आया था जिसके प्रणिता राजा राममोहन राय स्वामी विवेकानंद सरस्वती देवेंद्रनाथ ठाकुर, हेनरी विवियन, डिरोजियो माइकल, मधुसूदन दत्त, भारतेंदु हरिश्चंद्र, दीनबंधु मित्र आदि प्रमुख थे।
भारतीय स्वतंत्र आंदोलन भी अपनी तीव्रता पर था। इसी पृष्ठभूमि में भारतीय संगीत में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए भारतीय संगीत के पुनरुत्थान का श्रेय विष्णु नारायण भातखंडे को दिया जाता है।
19 अगस्त 1860 को मुंबई में नारायण राव नामक एक क्लर्क के घर जन्मे भातखंडे ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा एक नेत्रहीन संगीतज्ञ बल्लभ दामूल से ली थी।
1910 से उन्होंने अपना परंपरागत व्यवसाय त्याग कर संपूर्ण संगीत साधना में जुट गए इसके बाद उन्होंने संगीत को और अच्छे से समझने के लिए सारे देश का भ्रमण किया रामपुर तब भारतीय संगीत का स्वरूप प्रमुख केंद्र था जहां वीणा वादक वजीर खाँ, सुरसिंगार महारथी सआदत अली खान, प्रवीण रवाबी, मोहम्मद अली खान जैसे कई संगीत की हस्तियां निवास करती थी ।
भातखंडे जी ने काफी समय तक यहां रहकर संगीत की साधना की।
विष्णु नारायण भातखंडे जी महाराज जिया जी राव के प्रोत्साहन से बड़ौदा में एक संगीत विद्यालय की रचना की ग्वालियर के माधव संगीत कॉलेज तथा लखनऊ में मैरिज कॉलेज ऑफ म्यूजिक भी उन्हीं के द्वारा स्थापित किए गए थे अब लखनऊ के इस कॉलेज का नाम परिवर्तित करके भातखंडे संगीत महाविद्यालय कर दिया गया है।
बड़ौदा के महाराज जियाजीराव के सहयोग से भातखंडे ने भारत में संगीत सम्मेलनों के आयोजन की एक नई परंपरा विकसित की शास्त्रीय संगीत का जो रूप हम आज देख रहे हैं उसके गठन तथा प्रबंधन का श्रेय भातखंडे जी को ही जाता है ।
उन्होंने अनेक प्राचीन संगीत ग्रंथों की खोज करके उन्हें पुनः संपादित एवं प्रकाशित किया उन्होंने लगभग 1000 पुराने गीतों का संकलन तथा 300 स्वयं द्वारा रचित गीतों का प्रकाशन किया।
मराठी के चार खंडों में हिंदुस्तानी संगीत पद्धति तथा संस्कृत में श्री कमलकस्य संगीतम तथा अभिनव राग मंजरी उनकी प्रसिद्ध संगीत रचनाएं हैं।
अंग्रेजी में उनके दो अन्य ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं पहला ए शार्ट हिस्टोरिकल सर्वे ऑफ द म्यूजिक ऑफ अपर इंडिया और ए कंपरेटिव स्टडी ऑफ द म्यूजिक ऑफ द लीडिंग सिस्टम ऑफ फिफ्टिंथ सिक्सटीथ, सेवेंटीथ एंड एटिन्थ सेंचुरीज।
रागों के 10 थाटो में निबंधन तथा संगीत के वर्तमान नोटेशन का प्रारंभ करने का श्रेय उन्हें ही है 19 सितंबर 1936 को भारत के इस महान संगीतज्ञ का निधन हो गया।
भातखंडे जी के संगीत में क्रांतिकारी विकास के पश्चात भारतीय संगीत को नवीन जीवन प्रदान करने का श्रेय विष्णु दिगंबर पलुस्कर को है।
18 अगस्त 1872 को महाराष्ट्र के कुरुवाड रियासत में जन्मे पलुस्कर जी बचपन में पटाखों से दुर्घटनाग्रस्त होकर अपनी एक आंख की रोशनी खो दी थी, पिता दिगंबर पलुस्कर जो एक कीर्तन मंडली चलाते थे उन्हीं से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त हुई।
युवा अवस्था में बालकृष्ण बुआ से संगीत की आगे की शिक्षा उन्हें प्राप्त हुई।
संगीत सीखने के उपरांत उन्होंने अनेक शहरों में संगीत की शिक्षा लोगों को प्रदान की 5 मई 1901 को लाहौर में गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना की गई, इसी से प्रेरणा लेकर पलुस्कर जी ने मुंबई और दिल्ली में भी गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना की वह अपने समय के महान संगीत गायक तथा महान संगीत शिक्षक थे।
कांग्रेश के मंच से उन्होंने वर्षों तक वंदे मातरम का गायन किया था 1930 में महात्मा गांधी के दांडी मार्च के आरंभ में राम धुन तथा रघुपति राघव राजा राम का गायन उन्होंने ही किया था 19 अगस्त 1931 को इस महान संगीतकार का निधन हो गया।
वर्तमान में भारतीय संगीत को अनेक महान हस्तियां जैसे पंडित रविशंकर, बिस्मिल्लाह खान, भीमसेन जोशी, हरिप्रसाद चौरसिया आदि। शास्त्रीय संगीत में तथा लता मंगेशकर, आशा भोंसले, जगजीत सिंह, सुरेश वाडेकर, यशु दास, अनु कपूर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याणजी आनंदजी, खय्याम आदि फिल्म संगीत में अपनी सेवाएं दी हैं।
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