Chandragupt maurya

Chandragupt maurya ने मौर्य वंश की स्थापना अपने गुरु विष्णु गुप्त की सहायता से की थी और उसने 321 से 300 ईसा पूर्व के बीच शासन किया था।

भारत में Chandragupt maurya से पूर्व किसी भी शासक का राज्य क्षेत्र इतना विस्तृत नहीं हुआ था और उस दौर में जब यूनानी आक्रमण से उत्पन्न संकट और मगध की शक्तिशाली सेना को हराकर अपना विशाल राज्य स्थापित करना किसी चमत्कार से कम नहीं था।

Chandragupt maurya का प्रारंभिक जीवन :–

Chandragupt maurya के प्रारंभिक जीवन के बारे में ज्यादा ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं है, लेकिन कई कहानियां और किंवदंतियों अवश्य हैं।

अलग-अलग ग्रंथों में चंद्रगुप्त के बारे में अल्प मात्रा में विवरण मिलता है।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के पूर्वज पिपलीवन के शासक थे, बाद में यह राज्य मगध के साम्राज्यवाद का शिकार बन गया।

Chandragupt maurya के पिता का नाम ज्ञात नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि चंद्रगुप्त का बचपन जंगलों में बीता उसकी पिता की मृत्यु के पश्चात उसकी माता के साथ वह मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में रहने लगा था।

चंद्रगुप्त बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि का था, एक दिन राजकीलम खेल के दौरान चाणक्य की दृष्टि उस पर पड़ी और चाणक्य ने पहले ही दृष्टि में चंद्रगुप्त की योग्यता को पहचान लिया।

चाणक्य उस समय विख्यात शिक्षा केंद्र तक्षशिला के आचार्य थे, उन्होंने यूनानी आक्रमणकारियों से भारत को स्वतंत्र करने का संकल्प लेकर मगध के तत्कालीन शासक घनानंद के पास गए।

किंतु घनानंद घमंडी और विलासी प्रकृति का व्यक्ति था, उसने चाणक्य को अपमानित करके राज्यसभा से निकाल दिया, जिससे क्रुद्ध होकर चाणक्य ने यह प्रतिज्ञा ली कि वह नंद वंश का नाश कर देगा।

इसी दौरान पाटलिपुत्र वापस लौटते समय जब उसकी दृष्टि चंद्रगुप्त पर पड़ी तो वह उसकी योग्यता से प्रभावित होकर उसे अपने साथ तक्षशिला ले गया और शास्त्र और शस्त्रों की उचित शिक्षा दिलाकर नंद वंश के विनाश की योजना बनाई।

चंद्रगुप्त मौर्य की जाति के विषय में एकमत नहीं है। ब्राह्मण साहित्य उसे शूद्र तथा बौद्ध और जैन ग्रंथ इसे क्षत्रिय कुल का बताते हैं विशाखदत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस में इनके लिए वृषल शब्द का प्रयोग किया गया है वृषल शब्द का आशय निम्न कुल से है।

चंद्रगुप्त नाम का प्राचीनतम अभिलेख साक्ष्य रुद्र दमन के जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है।

Chandragupt maurya की विजय योजना :–

चाणक्य द्वारा बनाई गई योजना और Chandragupt maurya के सामने दो स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित थे, पहले मगध से नंद वंश के शासन को समाप्त करना दूसरा यूनानी आक्रमणकारियों से भारत को मुक्त करवाना।

सबसे पहले आसान लक्ष्य निर्धारित किया गया और नंद वंश के शासक धनानंद को पराजित करने की योजना बनाई गई।

मगध साम्राज्य या नंद वंश के पास एक बहुत बड़ी सेना थी और उसे आसानी से पराजित करना संभव नहीं था इसलिए चाणक्य ने सिकंदर से भेंट करके उससे सहायता मांगी। सहायता मिली अथवा नहीं इस विषय में इतिहास मौन है।

Chandragupt maurya  प्रारंभिक संघर्ष और सफलता :–

आरंभिक प्रयासों के असफल होने के बाद चंद्रगुप्त ने निराश ना होते हुए पंजाब के लड़ाकू कबीलों की एक सेना को संगठित किया और हिमालय के पर्वतीय राजा प्रवर्तक से दोस्ती कर ली।

इस समय पंजाब की स्थिति अराजक होती जा रही थी, यूनानी सत्ता सिकंदर के विजय के बाद स्थाई नहीं हो पाई थी और यवनों के विरुद्ध विद्रोह होते ही रहते थे।

सिकंदर जब भारत में था तभी सिंध में भी विद्रोह हुआ था अतः भारत छोड़ने के पूर्व अपने जीते गए क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए सिकंदर ने इन्हें तीन क्षत्रपों (राज्यों) में विभक्त किया था।

फिलिप को एक बड़े क्षेत्र का शासकीय क्षत्रप बनाया गया उसके अधीन आम्भी का राज्य, निचली काबुल घाटी से हिंदूकुश तथा सिंध से चेनाब तक का क्षेत्र दिया गया था।

झेलम और व्यास के बीच का क्षेत्र ‘पोरस’ के नियंत्रण में था, ‘पिथन’ को सिंध का राजा बनाया गया सिकंदर की यह व्यवस्था कारगर सिद्ध नहीं हुई।

चंद्रगुप्त और चाणक्य ने यूनानी सत्ता के विरुद्ध असंतोष को बढ़ावा दिया उन्हें अपने प्रयास में सफलता तब मिली जब पंजाब में मुक्ति संघर्ष आरंभ हो गया।

सिकंदर की वापसी और उसकी मृत्यु के बाद पंजाब में स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो गई, यूनानियों के विरुद्ध बड़े पैमाने पर विद्रोह होने लगे थे, ऐसे ही एक विद्रोह के दौरान यूनानी राजा फिलिप की भी हत्या कर दी गई थी।

जस्टिन के अनुसार इन विद्रोहियों का नेता चंद्रगुप्त ही था, यूनानी सत्ता के कमजोर होते ही चंद्रगुप्त ने सिंध और पंजाब पर अधिकार कर लिया और वहां का राजा बन गया।

सिंध और पंजाब हाथ में आते ही चंद्रगुप्त की शक्ति और महत्वाकांक्षा बढ़ गए अब उसने आगे मगध विजय की योजना बनाई।

यहां ऐतिहासिक रूप से विवादित विषय यह भी है कि चंद्रगुप्त ने पहले सिंध और पंजाब पर अधिकार किया अथवा मगध पर ।

एच सी राय चौधरी मानते हैं कि Chandragupt maurya ने पहले मगध में नन्द वंश की सत्ता समाप्त कर वहां अपना अधिकार किया उसके बाद उसने पंजाब और सिंध पर अधिकार किया।

कौन सी घटना पहले हुई यह ऐतिहासिक रूप से निश्चित कर पाना कठिन है तथापि तत्कालीन परिस्थितियों से यह आभास होता है कि, चंद्रगुप्त ने पहले सिंध और पंजाब पर अधिकार किया ।

पाटलिपुत्र के विरुद्ध लड़ने के लिए धन और सेना की व्यवस्था वहीं से हुई मगध पर चंद्रगुप्त के आक्रमण के समय में उसकी सेना में यवन सैनिकों का उल्लेख संभवत इसीलिए हुआ है।

Chandragupt maurya का मगध विजय :–

ऐतिहासिक रूप से मगध विजय का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है फिर भी ऐसा माना जाता है कि, चंद्रगुप्त ने जब पंजाब और सिंध पर अधिकार कर लिया तो वह अपनी सेना लेकर मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पहुंचा।

मगध की जनता नंद शासको के अत्याचारों से परेशान हो चुकी थी, अतः वहां के आम जनों ने चंद्रगुप्त का स्वागत एक मुक्तिदाता के रूप में किया।

मगध की जनता के सहयोग से वह अंतिम नंद शासक घनानंद को पराजित करने में सफल हुआ घनानंद या तो युद्ध में मारा गया अथवा राजधानी से भाग गया ।

इस विजय के बारे में महावंश टीका, मिलिंदपन्हो तथा विशिष्ट पर्व में विवरण मिलता है।

इस युद्ध में भी चाणक्य की कूटनीति ने ही चंद्रगुप्त मौर्य को विजय दिलाई थी नंद की विशाल सेना का सेनापति भद्रसाल था। घनानंद को पराजित करने के लिए मुद्राराक्षस ग्रंथ के अनुसार चाणक्य ने उसे अपनी ओर मिला लिया था।

फिर भी धनानंद और चंद्रगुप्त के बीच भीषण संघर्ष हुआ, मिलिंदपन्हो ग्रंथ के विवरण के अनुसार युद्ध में 100 कोटी सैनिक 10 हजार हाथी 1 लाख घोड़े मारे गए और 5 हजार रथ नष्ट हो गए।

इस युद्ध में विजय के उपरांत चंद्रगुप्त को मगध का विशाल साम्राज्य और धन संपत्ति प्राप्त हुई। विशिष्ट पर्व ग्रंथ के अनुसार नंद राजा को अपनी दो पत्नियों और एक पुत्री के साथ इस युद्ध में हार जाने के बाद जाने दिया गया।

लेकिन कुछ बौद्ध ग्रंथों के अनुसार वह युद्ध में मारा गया और अब मगध पर चंद्रगुप्त मौर्य का अधिकार हो गया और वह 321 ईसा पूर्व में मगध की गद्दी पर बैठा।

Chandragupt maurya

Chandragupt maurya का आरंभिक साम्राज्य विस्तार :–

चंद्रगुप्त सिर्फ पंजाब और मगध की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ उसने संपूर्ण भारत को जीतने का प्रयास किया।

मगध के राज सिंहासन पर बैठकर चंद्रगुप्त ने एक ऐसे साम्राज्य की नींव डाली जो संपूर्ण भारत में फैला हुआ था ।

चंद्रगुप्त के विषय में जस्टिन का कथन है कि उसने छह लाख की सेना लेकर संपूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया।

बौद्ध ग्रंथ महा वंश के अनुसार कौटिल्य ने चंद्रगुप्त को जंबूद्वीप का सम्राट बताया था।

मौर्य साम्राज्य की सीमाएं उत्तर पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक एवं पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सोपारा तथा सौराष्ट्र तक फैली हुई थी।

Chandragupt maurya का सेल्युकस से युद्ध :–

सिकंदर द्वारा अपने राज्य को स्थिरता देने के लिए स्थापित क्षत्रपों के बीच ही संघर्ष होने लगे थे, इन संघर्षों में सेल्यूकस को विजय प्राप्त हुई।

सिकंदर द्वारा जीते गए पश्चिम उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्रों पर सेल्यूकस का अधिकार हो गया।

312-11 ईसा पूर्व पर सेल्यूकस ने अपने प्रतिद्वंद्वियों पर विजय प्राप्त कर ली थी फिर उसने पूर्व दिशा की ओर अपना रुख किया और बेबीलोन और बैक्ट्रिया को जीतता हुआ वह भारत के मुख्य भू भाग की तरफ बढ़ा।

305-4 ईसा पूर्व में वह काबुल के मार्ग से होता हुआ सिंधु नदी की तरफ बढ़ा सेल्यूकस का मुख्य उद्देश्य सिकंदर द्वारा जीते गए भू भाग पर फिर से अधिकांर करना था।

परंतु इस समय तक भारत के इस भाग में मौर्य वंश की स्थापना हो चुकी थी, इसलिए सिंधु नदी को पार करते ही उसे चंद्रगुप्त की शक्तिशाली सेना का सामना करना पड़ा।

इस युद्ध का विवरण यूनानी और रोमन साहित्य में मिलता है। सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त के विरुद्ध युद्ध लड़ा अंत में इस युद्ध के परिणाम में दोनों के बीच संधि हो गई और वैवाहिक संबंध स्थापित हो गए।

चंद्रगुप्त और सेल्यूकस के बीच संधि की पुष्टि अनेक यूनानी इतिहासकार भी करते हैं और ऐसा अनुमान है कि सेल्यूकस भारत के सम्राट के हाथों पराजित होने से बचना चाहता था इसलिए उसने संधि कर ली थी।

संधि की शर्तों के अनुसार सेल्यूकस ने एरियाना के प्रदेश चंद्रगुप्त को सौंप दिए।

इस संधि के परिणाम स्वरूप दोनों को लाभ हुआ, सेल्यूकस के राज्य की पूर्वी सीमा सुरक्षित हो गई और मौर्य साम्राज्य की सीमा ईरान और अफगानिस्तान तक फैल गई।

हिंदूकुश पर्वत माला मौर्य साम्राज्य और सेल्यूकस के राज्य के बीच सीमा बन गया। इस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य अभूतपूर्व विस्तार के साथ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में स्थापित हो गया।

कंधार जाने वाले व्यापारिक मार्ग पर नियंत्रण प्राप्त हुआ चंद्रगुप्त और सेल्यूकस के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हुए सेल्यूकस ने अपनी पुत्री का विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया और चंद्रगुप्त ने 500 हाथी उपहार स्वरूप सेल्यूकस को भेजें।

सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगास्थनीज को पाटलिपुत्र भेजा जिसने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन पाटलिपुत्र इसकी प्रशासनिक व्यवस्था और अन्य विषयों पर विस्तार से विवरण दिया है।

Chandragupt maurya की प्रशासनिक व्यवस्था :–

अर्थशास्त्र और इंडिका में दिए गए विवरण के अनुसार प्रशासनिक व्यवस्था की सर्वोच्च स्तर पर राजा होता था।

उसे सारे अधिकार प्राप्त थे। वह मंत्रिमंडल एवं एक विस्तृत और कुशल नौकरशाही द्वारा प्रशासन चलाता था।

राजा राज्य के सभी विभागों पर गुप्तचरों की सहायता से नियंत्रण रखता था। चंद्रगुप्त ने एक विशाल और स्थाई सेना का भी संगठन किया था राज्य की आमदनी बढ़ाने के उपाय किए गए और साथ ही न्याय की समुचित व्यवस्था भी की गई थी।

नगर प्रशासन और स्थानीय प्रशासन की भी समुचित व्यवस्था राज्य की ओर से की गई थी। पाटलिपुत्र नगर राजधानी होने के कारण विशेष महत्व का था, यूनानी लेखन मेगास्थनीज और एरियन ने इस नगर की प्रशंसा की है ।

एलियन ने यहां तक लिखा है कि पाटलिपुत्र के वैभव और गरिमा की बराबरी सुसा और एकबतना भी नहीं कर सकते हैं।

स्ट्रेबो के विवरण से चंद्रगुप्त के दैनिक जीवन और कार्यकलापों का विवरण प्राप्त होता है, उसके अनुसार राजा स्त्री अंग रक्षकों से घिरा हुआ महल में रहता था, वह सिर्फ युद्ध, यज्ञ, न्याय तथा आखेट के लिए ही बाहर निकलता था।

चंद्रगुप्त ब्राह्मणों और श्रमणो का आदर करता था तथा उनसे परामर्श भी करता था। उसका अधिक समय राजकार्य में व्यतीत होता था तथापि उसकी अभिरुचि मद्यपान और खेलकूद में भी थी।

चंद्रगुप्त अपने पराक्रम परिश्रम और सैनिक निपुणता के बल पर भारत का प्रथम सम्राट बन बैठा था।

वह प्रथम भारतीय साम्राज्य निर्माता मुक्तिदाता और कुशल प्रशासक के रूप में विख्यात हुआ।

उसे मुक्तिदाता इसलिए कहा गया क्योंकि, उसने एक तरफ तो मगध की जनता को नंद वंश के अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाई वहीं दूसरी तरफ उसने पंजाब से यूनानियों के प्रभुत्व को समाप्त कर देश को विदेशी सत्ता की दास्ता से मुक्त कराया।

चंद्रगुप्त एक विजेता और प्रशासक के अतिरिक्त कूटनीतिज्ञ भी था, उसने विदेशी शासको के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाया।

इन सब विशेषताओं के अतिरिक्त  उसके गुरु विष्णुगुप्त चाणक्य की भी योग्यता और सामर्थ का विशेष योगदान चंद्रगुप्त के संपूर्ण जीवन और विजय अभियानों में था।

Chandragupt maurya की मृत्यु :–

जैन अनुश्रुतियो के अनुसार चंद्रगुप्त ने जीवन के अंतिम चरण में जैन धर्म स्वीकार कर लिया था और उसने जैन गुरु भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ले ली थी।

मगध में पडने वाले 12 वर्षीय सूखे से दुखी होकर उसने मगध राज्य का त्याग कर दिया था और श्रवणबेलगोला (मैसूर कर्नाटक) में स्थित चंद्रगिरी पहाड़ी पर करीब 298 ईसा पूर्व में काया क्लेश (उपवास) के द्वारा केवल्य (मृत्यु) की प्राप्ति की थी।

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