भारतीय दर्शन में जहां आध्यात्मिक प्रवृत्ति की प्रमुखता है वही इन प्रवृत्तियों के बीच Charvak darshan जैसे अपवाद भी हैं, जो जडवाद की अभिव्यक्ति और व्याख्या करते हैं।
जड़वाद में जड़ को ही एकमात्र तत्व मानकर उसके द्वारा सभी पदार्थों के अस्तित्व और उत्पत्ति की व्याख्या की जाती है। भौतिक पदार्थ ही नहीं बल्कि आत्मा और मन भी इसी जड़त्व के रूप माने जाते हैं।
Charvak darshan के अनुसार भूत ही परम सत्ता है जिससे चेतन या मन का आविर्भाव होता है, यह मनुष्य का चरम पुरुषार्थ केवल भौतिक पदार्थों के उपभोग जन सुख तक ही सीमित करता है ।
“खाओ पियो और मौज करो” यही इस दर्शन का मूल तत्व है संभवत खाने-पीने पर अत्यधिक बल देने के कारण ही इसे Charvak darshan की संज्ञा दी गई है।
Charvak darshan के प्रवर्तक :–
कुछ विद्वान “चार्वाक” नामक एक राक्षस द्वारा प्रतिपादित होने के कारण इस संज्ञा की उत्पत्ति का समर्थन करते हैं। यद्यपि Charvak darshan के मौलिक सूत्र अज्ञात हैं। परंतु अन्य दर्शनों में चार्वाक विचारों की चर्चा और उनके खंडन के लिए दिए गए विचारों के संकलन से इस दर्शन की रूपरेखा तैयार की जा सकी है।
Charvak darshan क्या है ?
चार्वाक नास्तिक, अनीश्वरवादी, प्रत्यक्षवादी तथा सुखवादी दर्शन है। यह वेदों के सिद्धांतों का खंडन करता है, अर्थात नास्तिक है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता है अर्थात अनीश्वरवादी है। तथा सुख और काम को ही जीवन का अंतिम धेय मानता है, इसलिए सुख वादी दर्शन है ।
अप्रत्यक्ष को ही ज्ञान का एक मात्र साधन मानता है। चार्वाक के अनुसार ‘प्रमा’ अर्थात यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति प्रत्यक्ष से ही संभव है “प्रत्यक्षमेव प्रमाणम” यह इस दर्शन की मुख्य वाक्य है।
प्रत्यक्ष का ज्ञान इंद्रियों से प्राप्त होता है अतः यह अनुमान को अप्रमाणिक मानता है, यह शब्द अर्थात अविश्वसनीय पुरुषों के उपदेशों को भी ज्ञान का साधन नहीं मानता।
अतः प्रत्यक्ष द्वारा अभिभूत विषय ही एक मात्र सत्य है, क्योंकि प्रत्यक्ष से सिर्फ भूत या जड़ का ज्ञान होता है, इसलिए भूत को छोड़कर कोई भी तत्व यथार्थ नहीं है। ईश्वर आत्मा स्वर्ग कर्म सिद्धांत आदि कल्पना मात्र है क्योंकि वह अप्रत्यक्ष है।
चार्वाक विश्व का अस्तित्व स्वीकार करता है, क्योंकि उसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। प्रायः भारतीय दार्शनिकों ने जड़ जगत को पांच भूतों से निर्मित बताया है पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल और आकाश इन पांचों के पांच गुण क्रम से गंध, स्पर्श, रंग, स्वाद और शब्द है।
जिनका ज्ञान क्रम से नाक, त्वचा, आंख, जीभ, और कान से होता है इन पंचभूत तत्वों में से चार्वाक आकाश की सत्ता को नहीं मानता क्योंकि उसका प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है अतः यह यथार्थ नहीं है।
इस प्रकार चार्वाक सिर्फ चार भूतों के सहयोग से ही विश्व को निर्मित मानता है साथ ही इसका निर्माण किसी परम सत्ता द्वारा नहीं बल्कि स्वाभाविक और आकस्मिक रूप से हुआ है ऐसा मानता है।
चार्वाक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता है क्योंकि उसका प्रत्यक्षीकरण नहीं होता यद्यपि चार्वाक चेतन को यथार्थ मानता है क्योंकि उसका ज्ञान प्रत्यक्ष से प्राप्त होता है परंतु वह चेतन को आत्मा का गुण नहीं मानता बल्कि उसे शरीर का गुण मानता है।
शरीर में ही चेतना का अस्तित्व रहता है जिस प्रकार पान कथा सुपारी और चूना जिसमें लाल रंग का अभाव है को मिलाने से लाल रंग का निर्माण हो जाता है उसी प्रकार पृथ्वी वायु अग्नि और जल चार तत्व या भूतों को आपस में मिलाने से चैतन्य का विकास हो जाता है
चार्वाक ईश्वर का अस्तित्व भी नहीं स्वीकार था क्योंकि उसका भी प्रत्यक्ष प्रमाण संभव नहीं है वह सिर्फ अनुमान द्वारा ही जाना जा सकता है ।
जोकि वास्तविकता नहीं है विश्व की नियमितता का कारण ईश्वर नहीं बल्कि स्वयं विश्व और उसका अपना स्वभाव है।
यदि ईश्वर होता तो वह दुखियों को दुखों का तत्काल अंत कर देता चार्वाक दर्शन ईश्वर की आराधना को अपने आप को धोखा देना मानता है।
Charvak darshan की व्याख्या :–
दर्शन के प्रमुख सिद्धांतों में बताए गए जीवन के 4 लक्ष्यों अर्थात पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ और काम में से चार्वाक सिर्फ अर्थ और काम को ही मान्यता प्रदान करता है।
इनमें से अर्थ व सुख और काम की प्राप्ति करने वाला तथा काम को चरम लक्ष्य मानता है इस दर्शन के अनुसार काम की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है काम अर्थात इच्छाओं की तृप्ति ही जीवन जीने का एक मात्र सत्य और लक्ष्य है मनुष्य के सारे कार्य काम या सुख के लिए ही होते हैं
“यावज्जीवेत सुंख जीवेत,
“ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत,
अर्थात जीवन को सुख से जीना चाहिए सुख के उपभोग के लिए ऋण भी लेना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए अतः जिस प्रकार भी हो सुख के साधन एकत्र करने चाहिए चार्वाक दर्शन भोग विलास वासना तृप्ति मदिरापान आदि जैसे भी सुख मिले उसका भोग करना चाहिए ।
इस प्रकार यह दर्शन पूरी तरह से भोग विलास पर आश्रित है और जीवन में सामंजस्य और संतुलन का महत्व प्राचीन काल से ही मनुष्य ने अनुभव कर लिया था। जैसा कि कहा गया है “अति सर्वत्र वर्जिते” अर्थात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किसी भी चीज की अति या अधिकता नहीं होनी चाहिए और जीवन को संतुलित विचारधारा और संतुलित भोग विलास के द्वारा ही जीना चाहिए।
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