The Chendru: The Tiger Boy
आज कहानी बस्तर के चेंदरू मंडावी की जिसने 1960 के दशक में बस्तर का नाम विश्व पटल पर दिया । उस पर बनी वृतचित्र ने आस्कर जीता । वह महज 7 साल का था जब उसने यह लोक प्रसिद्धी हासिल की । इसकी प्रसिद्धी की गाथा भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तक गई तो उन्होंने मुम्बई में चंदरू से मिलकर उसके लिए पढ़ाई लिखाई बीड़ा उठाने की बात कही। इस नायक के बारे में न जाने कितनी किताबें विश्व की अलग-अलग भाषाओं में लिखी जा चुकी है । और 90 मिनट की बनी उस पर वृत्तचित्र ने उसे आस्कर दिला दिया । आज भी अलग-अलग नामों से किताबें और वृतचित्र अमेजान प्राइम और अन्य प्लेट फार्म में मौजूद है। फिल्म का नाम तो आप अवश्य जानना चाहेंगे वह जंगल सागा यानि जगल की कथा। बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि मशहूर सितार वादक भारत रत्न रविशंकर ने इस फिल्म का संगीत दिया था।
ये कथा ऐसे शुरू हुई इस फिल्म के नायक यानि चेंदरू के गृहग्राम में जो आज नारायणपुर के गढ़बेंगाल में है।1960 के दशक में बस्तर का यह इलाका दुर्गम था आज भी है मगर आने जाने के लिए सड़क मार्ग हैं जो आपको सुगमता से नारायणपुर तक पहुँचा सकते हैं ।
ऐसे हुई बाघ से दोस्ती
मै जो सागा यानि कथा कह रहा है वह किसी काल्पनिक कहानी का हिस्सा नहीं है वह इसी गढ़बंेगाल में एक एसे अति गरीब परिवार की कहानी है जो जंगली कंद मूल और शिकार से अपना जीवन यापन करता था। और एक दिन शिकारी झुनझुमंडावी को शिकार के वक्त उसे बाघ का छोटा बच्चा दिखा जिसे वह अपने घर ले आया और अपने नन्हें बच्चे यानि चेंदरू को दे दिया । चेंदरू और बाघ दोनों ही मासूम थे, साथ -साथ खेले और बड़े हुए। दोनों की दोस्ती बड़ी निराली थी। चंदरू उसके लिए मछलियां लाता और वह उसके साथ दिन भर ऐसे खेलता मानों वह कोई हिंसक जानवर न होकर उसका अपना साथी व परिवार का सदस्य हो । चेंदरू ने अपने नए मित्र का नाम तेंदरू रखा था ।
चेंदरू और बाघ कहानी पूरे विश्व में फैली
दोनों की दोस्ती पूरे गांव में फैली और आसपास के गांवो से होते हुए स्वीडन के एक प्रसिद्ध फिल्म डायरेक्टर अर्नसक्स डॉर्फ तक पहुँची । अपनी पत्नि ऐस्ट्रिड के साथ वे भारत और फिर बस्तर के गढ़बेंगाल ।
उन दिनों बस्तर का घोटुल और यहां की संस्कृति विदेशी सैलालियों के लिए एक रिसर्च का विषय हुआ करता था । बस्तर की जानकारी वेरिअर एल्विन के लेखों के जरिए दुनियां में काफी लोग पढ़ चुके थे। और बस्तर को नजदीक से समझने के लिए आया जाया करते थे। यह सिलसिला आज भी जारी है। मगर शायद स्वरूप बदल चुका है ।
यहां आकर उन्होनंे छ महिने की अथक मेहनत के बाद 90 मिनट की एक फिल्म बनाई । संभवतः यह पहला अवसरा रहा होगा जब बस्तर का आदिवासी कैमरा और लाईट्स इत्यादि से परिचित हो रहा था। फिल्म बनी जंगल सागा। फिल्म की अधिकांश शूटिंग नारायणपुर में कुकुर नदी, और मंढकी नदी के किनारे हुई है। जो नाराणपुर से 10 किमी के दायरे में ही है। जब इस फिल्म को दुनियां ने देखा तो उसे चेंदरू से बाघ की दोस्ती काल्पनिक लगी। वे चेंदरू को नजदीक से देखना चाहते थे उसे छूना चाहते थे । डायरेक्टर को चेंदरू को यूरोप लेकर जाना पड़ा तब उस वक्त अति पिछड़े गांव गढ़बंेगाल से निकल कर चेंदरू यूरोप की आधुनिक दुनियां में गया वह महिनों डायरेक्टर के साथ रहा । उस पर बनी फिल्म ने ऑस्कर जीता और उस पर लिखी किताब बेस्ट सेलर बनी।
चेंदरू पर प्रकाशित बेस्टसेलर किताब द ब्वाय एण्ड द टाइगर अन्तरराष्ट्रीय बाजार में आज भी मंहगी (करीब 107 डॉलर में )बिकती है। चेंदरू के बारे में अंग्रेजी तथा स्वीडिश भाषाओं में पुस्तकें छपी व लिखी गई । फिल्म निर्माता की पत्नी एस्ट्रिड ने 1959 में चेंदरू और बाघ की दोस्ती पर वाय सू अमिगो एल टाइगर नाम से स्वीविश भाषा में पुस्तक लिखी तथा बाद में चेंदरू एण्ड द टाइगर के नाम से विलियम सेनसम ने अंग्रेजी में 1960 में पुस्तक प्रकाशित की।
चेंदरू दुनियाँ में हीरो बन चुका है । उसे लोग टाइगर बॉय कहते थे। जाहिर है तब तक भारत में भी लोग जानने लगे । यूरोप से लौटते समय वेरिअर एल्विन ने चेंदरू की मुलाकत प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से करवाई और पंडित जी ने उसकी आगे की पढ़ाई लिखाई का जिम्मा उठाने की बात चंदरू के पिता झुनझुन मंडावी से की जिसे झुनझुन मंडावी ने स्वीकार नहीं किया। वे चाहते थे चेंदरू महिनों यूरोप में रहने के बाद अब वह गढ़बेगाल में ही रहे।
अब चेंदरू लौट आया
चेंदरू यूरोप की चकाचौध के बीच, डायरेक्टर के साथ उसके घर पर ही रहा । उसे मिलने वालों का सुबह -शाम तांता लगा रहता था। फिर इस चमक-दमक की दुनिया से निकलकर चेंदरू अपने गांव लौटा तो उसके पास कुछ महगी घड़ियां, कैमरा, कुछ पैसे थे। और साथ में उसके उपर फिल्माई गई फिल्म की सी. डी. और किताबें । यहां कहानी बिलकुल बदल गई लोगों ने उससे सारा सामान लौटा देने का भरोसा दिया कर सब कुछ लेकर चले गए। लोगों ने जमकर उसका भरोसा तोड़ा । अब उसके पास अपना परिचय देने के लिए भी प्रमाण नहीं बचा था। कुछ दिनों तक वह यूरोप में बिताए समय की याद में बिता । कभी अपने बेटे को उन जगहों को दिखाता जहां फिल्म की शूटिंग हुई थी । और फिर रोज-रोटी के लिए वह दिहाड़ी मजदूरी करना उसकी मजबूरी बन गया । 2010 में आए भीषण बाढ़ ने उसका घर बहा दिया । इस बीच उसके बाघ मित्र तेंदरू की भी मौत हो गई वह अकेला हो गया । उसे पक्षाघात हो गया ।
पक्षघात ने चेदरू तथा उसके परिवार को और भी मुश्किल में डाल दिया। कभी नाराणपुर, रामपुर और कभी जगदलपुर के अस्पताल में इलाज कराता रहा, किन्तु छत्तीसगढ़ का मोगली के नाम से विश्व प्रसिद्ध दिलाने वाला बस्तर का टाईगर ब्याय 18 सितम्बर 2013 को 78 वर्ष की उम्र में, सदा-सदा के लिए अनंत यात्रा पर चला गया।
1955 में प्रारंभ हुई स्वीडिश फिल्म एन द जंगल सांगा में बतौर मुख्य भूमिका निभाने वाला अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म का नायक चेंदरू बाघों और और तेंदुओं के बीच रहकर मानव और वन्यप्राणियों के बीच रहकर मानवता का परिचय दिया।
भारत लौटने के बाद उसका जीवन संघर्ष मय हो चुका था। डायरेक्टर दम्पत्ति उसे गोद लेना चाहती थी मगर बाद में दोनों के बीच आपसी मनमुटाव से यह संभव नहीं हो सका।
आज भी चेंदरू का परिवार गरीबी में गुजर बसर कर रहा है चेंदरू की कहानी अगर पाठ्य पुस्तकों पर पढ़ाई जाए और परिवार का जिम्मा अगर सरकार उठाए तो चेंदरू प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी।