इस लेख मे :–
1)राज्यपाल पद का संवैधानिक पक्ष
2) राज्यपाल पद को समाप्त करने के मुख्य कारण
i) गैर उत्पादक वित्तीय भार
ii) कार्य विहीन पद
iii) केंद्र और राज्य के टकराव का केंद्र बिंदु
iv) राजनीतिक हाशिए पर आ गए नेताओं के लिए है यह पद
v) औपनिवेशिक शासन व्यवस्था का अवशेष है यह पद
3 ) संवैधानिक प्रावधानों के अधीन महत्वहीन होता राज्यपाल का पद
I ) कार्यपालिका संबंधी अधिकार
Ii ) विधायी अधिकार
iii) वित्तीय अधिकार
Iv) न्यायिक अधिकार
v ) अध्यादेश जारी करने की शक्ति
Vi) विवेकाधिकार
4 ) राज्यपाल के पद और कार्यप्रणाली में सुधार के उपाय
5 ) निष्कर्ष
क्या राज्यपाल (GOVERNOR ) का पद असामयिक हो गया है, और इसे भारत सरकार द्वारा समाप्त कर देना चाहिए, यह आज एक यक्ष प्रश्न बन चुका है !
आजादी के 70 साल से भी अधिक समय गुजर जाने के बाद संविधान में 100 से भी अधिक संशोधन हो चुके हैं, वहीं आजादी के बाद संवैधानिक प्रक्रिया को जारी रखने के लिए उस दौर में निर्मित संविधानिक पदों की
उपयोगिता और सामयिकता को कसौटी पर कसने का समय आ चुका है, दूसरे शब्दों में कहें तो संवैधानिक पदों को उनकी उपयोगिता के आधार पर परखने का उपयुक्त समय आ चुका है !
राज्यपाल ऐसा ही संविधानिक पद है, जिसकी प्रथम स्पष्ट झलक अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1935 के अधिनियम में दिखती है ! 1935 के अधिनियम से ही भारत में कुल 11 प्रांतों (राज्य ) की विधानसभाओं का
गठन किया गया था , और यहीं से राज्यपाल या गवर्नर का पद भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में अपनी निरंतरता आज तक बनाए हुए हैं !
आजादी और संवैधानिक व्यवस्था के 75 साल बीत जाने के बाद आज राज्यपाल का पद अपनी महत्ता और उपयोगिता खो चुका है, और इसके अनेकों कारण है जिसकी सिलसिलेवार चर्चा इस लेख में करेंगे !
सबसे पहले राज्यपाल की वर्तमान संवैधानिक स्थिति को समझना महत्वपूर्ण है !
1) राज्यपाल पद का संवैधानिक पक्ष –: constitutional aspect of the post of governor
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 155 में, राज्यपाल की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है, अनुच्छेद 157 इस पद की योग्यता जैसे वह भारतीय हो; 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो; लाभ के पद पर ना हो
विधानसभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो; जैसी नियम और शर्ते इस पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति के लिए निर्धारित हैं!
पदावधि की बात करें तो संविधान सम्मत यह 5 वर्षों का होता है; परंतु व्यवहार में यह देखा गया है कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के साथ ही राज्यपालों की पदावधि समाप्त कर दी जाती है !
संवैधानिक पक्ष के बाद इस विषय पर चर्चा अनिवार्य है कि क्यों इस संवैधानिक पद को अब समाप्त कर देना चाहिए !
2) राज्यपाल के पद को समाप्त करने के मुख्य कारण निम्न हो सकते हैं —:The main reasons for abolishing the post of Governor can be
i ) गैर उत्पादक वित्तीय भार –:
एक अनुमान के अनुसार वेतन; भत्ते; कार्यालय; निवास, और संवैधानिक पद पर प्राप्त होने वाली अन्य सुविधाओं के साथ; प्रत्येक राज्यपाल पर सालाना 5 करोड रुपए का खर्च होता है! यही अनुमान यदि हम
पूरे देश के लिए लगाएं तो वह 100 करोड़ या एक अरब रुपए से भी ज्यादा है, और यह व्यय पूरी तरह से गैर उत्पादक खर्च है; जिसकी चर्चा आगे करेंगे, तो इस एक अरब की राशि का प्रयोग भारत जैसे गरीब
देश में अंत्योदय उत्थान की कई योजनाओं में हो सकता है, या कहे होना चाहिए, जहां गरीबी हटाओ के नारे के बीच गरीब और गरीब होता चला गया है!
आलोचकों ने तो इसे राज्य की प्रशासन का रबर स्टैंप तक कहा है, राष्ट्रपति के समतुल्य राज्य का पद होने के कारण हम इसकी तुलना राष्ट्रपति पद से कर सकते हैं !
राष्ट्रपति को भी केंद्र की संवैधानिक व्यवस्था का रबर स्टैंप कहा गया है, लेकिन राज्यपाल की तुलना में राष्ट्रपति को अधिक और निर्णायक स्वविवेक की शक्तियां प्राप्त हैं; राष्ट्रपति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
देश का प्रतिनिधित्व करता है जबकि राज्यपाल के लिए ऐसी प्रशासनिक अनिवार्यता की आवश्यकता नहीं है !
राष्ट्रपति की पदावधि निश्चित है; उसे 5 वर्ष का कार्यकाल से पहले सिर्फ महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है ! जबकि राज्यपाल पद पर आसीन व्यक्ति को व्यवहार में कभी भी केंद्र सरकार की मंशा
के अनुरूप हटाया जा सकता है !
ii) कार्य विहीन पद —:
राज्यपाल के पद को कार्य विहीन पद कहना कई लोगों को मिथ्या वर्णन लग सकता है, लेकिन आजादी के 70 सालों में कई राज्यों ने महीनों तक बगैर किसी राज्यपाल के राज्य की प्रशासनिक कार्य व्यवस्था का सुचारु
संचालन करके इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि, राज्यपाल कार्य विहीन पद है !
iii) केंद्र और राज्य में टकराव का केंद्र बिंदु –:
80 के दशक तक जब तक केंद्र और राज्यों में एक ही राजनीतिक दल की सत्ता थी तब तक सब ठीक था, परंतु जैसे ही राज्यों में स्थानीय और दूसरे राजनीतिक दलों की सरकार सत्ता में आई, केंद्र और राज्यों के मध्य
टकराव चरम स्थितियों तक पहुंच गए, और इस टकराव का केंद्र बिंदु राज्यपाल का पद बना ! क्योंकि राज्यपालों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है और भी कई कारण है जिनकी वजह से राज्यपाल केंद्र सरकार के
हितों का पोषक होता है, और राज्यों की सरकारों की हितों की अनदेखी इस टकराव की मुख्य वजह बन जाती है
हाल के वर्षों में कुछ राज्यों ने तो राष्ट्रपति से राज्यपाल को हटाने की अनुशंसा तक कर दी है ! यह संवैधानिक प्रावधान कहें या केंद्र की शक्तियों का राज्य की शक्तियों पर आधीक्य, की राज्यपाल की नियुक्ति
राष्ट्रपति या केंद्र द्वारा की जाती है; परंतु राज्य विधानमंडल को यह अधिकार नहीं है कि वह राज्यपाल को पद से हटा सके
वर्तमान समय में केंद्र और राज्य के टकराव का केंद्र बिंदु राज्यपाल बना हुआ है; सविधान की भावनाओं और प्रावधानों के अनुरूप राज्यपाल की मुक सहमति राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में होनी चाहिए
लेकिन अनेकों ऐसे उदाहरण है, जब राज्यपाल ने स्वयं राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था की आलोचना की है !
iv) राजनीतिक हाशिए पर आ गए नेताओं के लिए है, यह पद —:
राज्यपाल ( GOVERNOR ) के पद की आलोचना का यह एक प्रमुख बिंदु है ;गत दशकों में राज्यपाल के पदों पर ऐसे राजनेताओं को नियुक्त किया गया है; जिन्हें जनता ने चुनाव में नकार दिया है, या फिर वह अपने
राज्य की राजनीति में हाशिए पर आ गए हैं, ऐसे व्यक्तियों को तुष्टीकरण की नीति के तहत केंद्र द्वारा राज्यों में राज्यपाल नियुक्त कर दिया जाता है ! वर्तमान परिदृश्य के आधे से अधिक राज्यों में राज्यपाल इसी
पृष्ठभूमि के हैं ! इस प्रकार से नियुक्त होने वाले राज्यपालों से इस पद की गरिमा का ह्रास निश्चित है, ऐसे राजनेता केंद्र के उपकारों से अधिग्रहित होकर सिर्फ केंद्र सरकार के पक्ष में सारे निर्णय लेते हैं, जिससे केंद्र और
राज्य सरकारों के मध्य कटुता बढ़ती जाती है,और राज्यपाल का पद संवैधानिक दायित्व का पद ना होकर चाटुकारिता का पद बन जाता है !
v) औपनिवेशिक शासन व्यवस्था का अवशेष है, यह पद –:
अंग्रेजों के शासन काल के बाद से आज की सामाजिक, प्रशासनिक और संवैधानिक पृष्ठभूमि में व्यापक बदलाव आ चुका है, जो पद अंग्रेजों के शासन काल में महत्व के थे, वह अब अपना महत्व और सामयिकता खो चुके हैं,
उन्हीं में से एक पद राज्यपाल का है, औपनिवेशिक शासन के दौर में राज्यों के प्रशासन पर पर्याप्त नियंत्रण लगाने के लिए राज्यपाल के पद का सृजन किया गया था ! वर्तमान संवैधानिक परिपेक्ष में राज्य, कुछ मामलों
को छोड़कर पर्याप्त स्वतंत्रता के अधिकारी हैं, तो ऐसा पद जो अब औपनिवेशिक सत्ता के दौर में सामयिक था, अब नहीं रहा, इसलिए इस पद को समाप्त करने की पहल होनी चाहिए !
3) संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप महत्वहीन होता राज्यपाल का पद –:
यहां संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप कैसे राज्यपाल का पद महत्वहीन हो चुका है, इस पर गौर करने से ही इस पद की समाप्ति का
विचार पूर्ण होगा | राज्यपाल या गवर्नर को राज्य के संवैधानिक तंत्र का मुखिया बनाया गया है और ,निम्न शक्तियां या कार्य अधिकार
राज्यपाल को प्राप्त है !
I) कार्यपालिका संबंधी अधिकार !
II) विधायी अधिकार !
iii) वित्तीय अधिकार !
iv) न्यायिक अधिकार !
v) अध्यादेश जारी करने की शक्ती
vi) विवेकाधिकार !
i) कार्यपालिका संबंधी कार्य –:
अनुच्छेद 154 के अंतर्गत निम्नलिखित कार्यपालिका अधिकार राज्यपाल के पास है !
A) राज्य के प्रशासन का अध्यक्ष राज्यपाल (GOVERNOR ) होता है, मंत्रियों के कार्यों का विभाजन करता है !
B) मंत्री परिषद के सदस्यों के नियुक्ति और उनका शपथ ग्रहण
C) राज्य के उच्च पदों जैसे महाधिवक्ता, लोक सेवा आयोग, विश्वविद्यालयों के
कुलपति, आदि पर नियुक्ति करने का अधिकार राज्यपाल के पास होता है इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालयों
के न्यायाधीशों की नियुक्ति में वह राष्ट्रपति को परामर्श भी देता है !
D) राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था की सूचना मुख्यमंत्री से प्राप्त करता है !
E) राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल होने पर केंद्र सरकार को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करता है !
उपरोक्त राज्यपाल के कार्यपालिका अधिकार महत्वहीन और गैरजरूरी हो चुके हैं ! जैसा कि राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का अध्यक्ष राज्यपाल होता है, लेकिन वह प्रशासनिक व्यवस्था में रबर स्टैंप
से ज्यादा महत्व नहीं रखता है, मंत्रिपरिषद के सदस्यों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की इच्छा पर निर्भर है, वही मंत्रियों को शपथ ग्रहण राज्य के मुख्य न्यायाधीश भी दिला सकते हैं, जो कई अवसरों पर गवर्नर की
अनुपस्थिति में हुआ भी है !
राज्य के उच्च पदों पर होने वाली प्रत्येक नियुक्ति राज्य सरकार की इच्छा पर ही निर्भर है, राज्यपाल इन नियुक्तियों पर मात्र मोहर ही लगाता है !
राज्य के प्रशासन व्यवस्था की , मुख्यमंत्री से सूचना पाने की व्यवस्था ने कई मौकों पर विवादों को जन्म दिया है ,और मुख्यमंत्रियों ने यह कहकर प्रशासनिक व्यवस्था की सूचना देने से मना कर दिया है,
कि वे इस मामले में स्वतंत्र हैं !
राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करने का अधिकार सर्वाधिक विवादास्पद रहा है ! संवैधानिक इतिहास में कई अवसरों पर राज्यपालों द्वारा इस अधिकार का दुरुपयोग देखने को
मिला है ! जब राज्यपाल ने केंद्र सरकार के दबाव में राज्य में राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा कर दी है !
अंत में एक राज्य दो प्रधान, संवैधानिक व्यवस्था का भाग नहीं है, इसलिए राज्यपाल राज्यों की कार्यपालिका में मात्र एक रबर स्टैंप से ज्यादा और कुछ भी नहीं है !
II) विधायी अधिकार –:
संविधान के अनुच्छेद (174 ) में राज्यपाल के विधायी अधिकारों का उल्लेख है जिसके अंतर्गत
A) राज्यपाल राज्य विधानमंडल का प्रमुख होता है, विधान सभा के सत्र आहूत करता है, स्थगित करता है, और विधानसभा को भंग भी करता है !
B) आंग्ल भारतीय समुदाय के सदस्यों को विधानसभा में मनोनीत कर सकता है !
C) राज्य में आम चुनाव के बाद प्रथम विधान सभा को संबोधित करता है !
D) राज्य विधान मंडल से पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर करके उसे कानूनी रूप देता है !
E) धन विधेयक के अतिरिक्त किसी अन्य विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को लौटा सकता है !
F) कुछ विशिष्ट प्रकार के विधायकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित कर सकता है !
उपरोक्त विधायी अधिकार भी गैर जरूरी और महत्वहीन हो गए हैं, गवर्नर राज्य विधान मंडल का प्रमुख व रबर स्टैंप की तरह होता है ! विधानमंडल को आहूत करना स्थगित करना या भंग करना ऐसे अनिवार्य कार्य
नहीं है ! जो उसकी अनुपस्थिति में संपन्न नहीं हो सकते और इसके उदाहरण भारतीय संवैधानिक इतिहास में उपलब्ध है ! जब राज्यपाल की अनुपस्थिति में यह कार्य किसी अन्य संवैधानिक पदाधिकारी ने पूर्ण किए हो !
आंग्ल भारतीय समुदाय को मनोनीत करने की भावना स्वतंत्रता के समय सामयिक थी, परंतु आजादी और संविधान लागू होने के 70 साल बाद यह औपचारिकता मात्र है !
विधानसभा में पारित ऐसे विधेयकों पर हस्ताक्षर कर के वह कानून का रूप देता है ! जिस पर उसकी मर्जी हो या ना हो ! कुछ मामलों में विधेयकों को पुनर्विचार के लिए वह विधानमंडल को वापस भेज सकता है !
परंतु विधानमंडल से दोबारा पारित होने पर उसे अपनी सहमति देनी ही पड़ती है !
विधानसभा से पारित कुछ विशिष्ट विधायकों को वह राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकता है, जिसमें उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में कमी संबंधी विधेयक, संसद द्वारा निर्मित कानूनों के अधीन
आवश्यक घोषित वस्तु पर करारोपण का विधायक, समवर्ती सूची में उल्लेखित विषय पर राज्य द्वारा पारित विधेयक जिस पर केंद्र से संघर्ष होने की संभावना हो !
इस तरह से विधायकों को सुरक्षित रखने के मामले में राज्यपाल के राज्य प्रशासन से, टकराव आम हो चुके हैं ! राज्य, राज्यपाल के इस कृत्य को अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन मानते हैं, और यह विषय
विवाद का प्रमुख कारण बन जाता है !
III) वित्तीय अधिकार –:
संविधान के अनुच्छेद 161(1) के अनुसार राज्य विधान सभा में धन विधेयक राज्यपाल की पूर्व अनुशंसा पर ही प्रस्तुत किया जा सकता है, राज्य की आकस्मिकता निधि अनुच्छेद 203(3) के अनुसार
प्रत्येक व्यय राज्यपाल की सहमति से ही होता है ,अनुच्छेद 202 के अनुसार राज्य का वित्त मंत्री, राज्यपाल की सहमति से बजट विधानसभा में पेश करता है !
उपरोक्त वित्तीय अधिकारों की वास्तविकता और व्यवहारिकता पर यदि गौर करें तो, आकस्मिक निधि के व्यय की अनुमति खर्च के उपरांत ली जाती है,जिस पर राज्यपाल का कोई नियंत्रण नहीं होता है !
और धन विधेयक पर वह अपनी असहमति नहीं दे सकता, तो इस प्रकार वित्तिय अधिकार मात्र औपचारिकता से अधिक और कुछ भी नहीं है !
IV)न्यायिक अधिकार –:
गवर्नर को जिला न्यायालयों और अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति, स्थानांतरण, और पदोन्नति से संबंधित मामलों के निर्णय का अधिकार है ! न्यायालयों द्वारा दोष सिद्ध किए गए अपराधियों ,क्षमा करने
उनके सजा को कम करने या निलंबित करने या विलंबित करने का अधिकार राज्यपाल को है !
यह सारे न्यायिक अधिकार भी मात्र प्रतीकात्मक है, क्योंकि जिला न्यायालयों और अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति (ARTICLE 233 ) में राज्यपाल इस शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय के
परामर्श से ही कर सकता है !
न्यायालय से सजा प्राप्त अपराधियों की सजा कम करने या निलंबित करने की शक्ति का प्रयोग वह सिर्फ राज्य मंत्रिमंडल की सलाह से ही कर सकता है,इस प्रकार राज्यपाल के न्यायिक अधिकार नाम मात्र के ही है |
V) अध्यादेश जारी करने का अधिकार –:
अध्यादेश जारी करने की शक्ति का उल्लेख राष्ट्रपति के लिए अनुच्छेद 123 है ! और राज्यपाल के लिए यह संविधान के अनुच्छेद 213 में उल्लेखित है ,राज्यों में, राज्यपाल द्वारा राज्य सूची के विषयों पर उस समय
अध्यादेश जारी किया जाता है, जब विधानसभा का सत्र विश्रांति काल में हो या जब विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा हो, लेकिन यह अध्यादेश राज्यपाल अपनी इच्छा से जारी नहीं कर सकता, इसके लिए मंत्रिपरिषद की
सलाह अनिवार्य है और अध्यादेश जारी होने के 6 माह के अंदर इसे विधानसभा से पारित होना भी अनिवार्य है,अन्यथा यह अध्यादेश स्वयं समाप्त हो जाता है ! इस प्रकार वास्तविकता में अध्यादेश जारी करने की
शक्ति और अधिकार मंत्रिमंडल का है, ना कि राज्यपाल का |
VI) विवेकाधिकार –:
संविधान में राज्यपाल को कुछ विवेकाधिकार भी दिए हैं, जो सर्वाधिक विवाद का विषय है, आम चुनाव के बाद मुख्यमंत्री या राज्य मंत्री परिषद की नियुक्ति में राज्यपाल की स्वविवेक का अधिकार, शक्तियों का
प्रयोग कब महत्वपूर्ण होता है, जब किसी भी राजनीतिक दल को राज्य में पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होता है इसके लिए दो सिद्धांत है |
A) अनुमान लगाने का सिद्धांत B) अनुमान नहीं लगाने का सिद्धांत
A) इस सिद्धांत के अंतर्गत राज्यपाल इस तथ्य का अनुमान लगाता है, कि कौन सा राजनीतिक दल राज्य को स्थिर सरकार दे पाएगा, और स्वाभाविक रूप से इस निर्णय में केंद्र के दबाव के अनुरूप राज्यपाल उचित
निर्णय नहीं लेता है, जिसका उदाहरण केरल में 1965 के आम चुनाव के बाद 1967 में उत्तर प्रदेश, 1975 में गुजरात, और 1978 में महाराष्ट्र, के आम चुनाव के बाद देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के राज्यपालों ने
नियम विरुद्ध निर्णय लेते हुए अपनी अल्पमत पार्टी को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया |
B) अनुमान ना लगाने का सिद्धांत –: इस सिद्धांत को प्रकाशा सिद्धांत भी कहा जाता है ! राज्य में आम चुनाव के बाद जब किसी भी दल को बहुमत नहीं प्राप्त हो तो इस सिद्धांत का प्रयोग करते हुए राज्यपाल सबसे बड़े
दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है! इस सिद्धांत का दुरुपयोग वर्षों से केंद्र और राज्य में शासन करने वाली राजनीतिक दल ने व्यापक पैमाने पर किया है! 1957 में उड़ीसा में सरकार के निर्माण का विषय हो,
1967 में राजस्थान में, 1982 में हरियाणा, सभी मामलों में इस सिद्धांत का उल्लंघन उस समय के राज्यपालों द्वारा किया गया था |
उपर्युक्त सिद्धांतों के अतिरिक्त लिस्ट पद्धति, परेड पद्धति, आदि द्वारा भी त्रिशंकु विधानसभा के लिए सरकार का चुनाव राज्यपाल द्वारा किया जाता है! मगर सभी सिद्धांत प्रतीकात्मक ही सिद्ध हुए हैं, और
राज्यों में होता वही है जो केंद्र सरकार की मंशा होती है |
4) राज्यपाल के पद और कार्यप्रणाली में सुधार के उपाय–:
संविधान के लागू होने के बाद से ही राज्यपाल का पद विवादों में रहा है ,और सरकार द्वारा इस पद का विवाद समाप्त करने और कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए समय-समय पर विभिन्न आयोगों के माध्यम से
सुझाव प्राप्त किए गए हैं |
प्रमुख आयोग जिन्होंने राज्यपाल पद पर सुधार के लिए सरकार को सुझाव दिए उनमें से प्रमुख है प्रशासनिक सुधार आयोग, राज्यपाल समिति, राजा मन्नार समिति, और सरकारिया आयोग | इन आयोगों
ने द्वारा दिये गए कुछ कामन सुझाव निम्न है |
i ) नियुक्ति के समय राज्यों से सुझाव लिए जाय,और सहमति से ही नियुक्ति की जाय |
ii ) राजनीति मे सक्रिय राजनेताओ को इस पद पर नियुक्त न किया जाय |
iii ) राज्यपाल पद पर नियुक्त व्यक्ति को दुबारा किसी लाभ के पद पर नियुक्ति न दी जाय |
iv ) राज्यपाल की पदावधि सुनिश्चित की जाय |
v ) राज्यपाल की नियुक्ति के लिए आयोग का गठन किया जाय |
इन सभी आयोगों ने राज्यपाल पद को प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न सुझाव दिए, जिनमें से अधिकतर सुझाव के रूप में फाइलों में ही बंद पड़े रह गए, और राज्यपाल का पद अर्थहीन और असामयिक बनता गया |
5) निष्कर्ष –:
वर्तमान समय इस कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त है, कि सरकार गंभीरता पूर्वक राज्यपाल के पद की समीक्षा करें, और 70 वर्षों मे राज्य प्रशासन का केंद्र बिन्दु रहने के बावजूद यह सिद्ध हो चुका है कि यह पद असामयिक
और राज्य प्रशासन पर बोझ के अलावा और कुछ नहीं है, इस पद की वजह से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच खाई और बड़ी होती जा रही है! आर्थिक रूप से भी यह पद राज्य सरकारों का वित्तीय घाटा बढ़ाने वाला ही है |
राज्य प्रमुख के रूप में उसकी भूमिका इतनी बड़ी नहीं है कि, उसकी अनुपस्थिति में राज्य के प्रशासनिक तंत्र की विफलता का भय हो | राज्य में उसकी भूमिका और कर्तव्यों के निर्वाह के कई विकल्प हो सकते
हैं, जिन पर सुविधा अनुसार सरकारों द्वारा विचार किया जाना चाहिए |
निश्चित रूप से भारतीय संविधान में केंद्र की शक्तियों का विस्तार राज्यों की तुलना में अधिक है, फिर भी इसी संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है | इसलिए राज्यों को संवैधानिक स्वायत्तता देने
के लिए राज्यपाल के विषय में निर्णय करने का अधिकार मिलना चाहिए, राज्यपाल के पद को प्रभावी बनाने के सुझाव मे विभिन्न आयोगो ने भी सुझाव दिया है की, कम से कम राज्यपाल की नियुक्ति के समय राज्यों से
राय ली जाय |
राज्यों में आम जनता राज्य सरकार के अनुचित कार्यों की शिकायत राज्यपाल से इस आशा में करती है, कि उसे राज्यपाल की कार्रवाई से न्याय मिलेगा, लेकिन व्यावहारिक रूप में राज्यपाल के प्रशासनिक
अधिकार शून्य ही है | और जो थोड़े बहुत अधिकार है भी, वह केंद्र सरकार और राज्य सरकार के दबाव में कहीं खो से जाते हैं, इसलिए राज्यों में राज्यपाल के औपनिवेशिक काल से चले आ रहे पद को अब समाप्त कर देना
चाहिए |
9 thoughts on “राज्यपाल | पद को क्यों समाप्त कर देना चाहिए ?”