भारतीय संविधान की विशेषताएं

इस लेख में ।

लिखित एवं निर्मित संविधान 
विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान
संविधान की प्रस्तावना
प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष तथा समाजवादी संविधान
विधि के शासन की स्थापना
संसदीय शासन पद्धति की सरकार की स्थापना 
स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना
मूल अधिकारों की व्यवस्था
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की संवैधानिक व्यवस्था
कठोर और लचीला संविधान का सम्मिश्रण
केंद्र अभिमुख संविधान 
वयस्क मताधिकार की व्यवस्था
एकल नागरिकता का प्रावधान 
मूल कर्तव्यों की व्यवस्था
विदेशी संविधान के स्रोत

 

भारत का संविधान विश्व के सभी संविधान में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है, इस विशिष्ट पहचान को हम निम्न प्रमुख विशेषताओं के माध्यम से समझ सकते हैं ।इस लेख में विस्तार से जानते हैं भारतीय संविधान  की विशेषताएं ।

लिखित एवं निर्मित संविधान –:

भारतीय संविधान की विशेषताओं में लिखित और निर्मित संविधान का विशेष महत्व है। भारत के संविधान का निर्माण संविधान सभा द्वारा किया गया था इसे पूर्णतया लिपिबद्ध किया गया है।

भारत के लिखित संविधान में प्रशासन तथा संवैधानिक अधिकारियों के कार्यों का वर्णन न्यायालयों के गठन तथा उनकी अधिकारिता केंद्र राज्य संबंध अल्पसंख्यकों अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के संरक्षण

मौलिक अधिकार तथा उनके संरक्षण एवं राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के संबंध में व्यापक रूप से लिखित व्यवस्था की गई है।

संविधान सभा ने नवनिर्मित संविधान को 26 जनवरी 1949 को अधिनियमित और आत्म अर्पित और अंगीकृत किया, नागरिकता, निर्वाचन और अंतरिम संसद से संबंधित उपबंधो तथा अस्थाई और

संक्रमण कारी उपबंधो को तुरंत 26  नवम्बर 1949 को लागू किया गया था, शेष  संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था, और इसी तिथि को संविधान को लागू होने की तिथि माना गया है और भारत को  गणतंत्र घोषित किया गया था।

विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान –:

भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, इस संविधान में केंद्र सरकार राज्य सरकार प्रशासन, सेवाएं ,निर्वाचन ,आदि प्रशासन से संबंधित सभी विषयों पर विस्तार से लिखा है।

जिस समय भारत का संविधान लागू हुआ था, उस समय इसमें 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थी, जो विश्व के अन्य देशों के लिखित संविधान से कहीं अधिक है।

भारत के संविधान की व्यापकता समय के साथ बढ़ती ही जा रही है, संविधान लागू होने के बाद से अब तक 120 से भी अधिक संशोधन भारतीय संविधान में किए जा चुके हैं।

भारतीय संविधान में संशोधन द्वारा अब तक लगभग 90 अनुच्छेदों को जोड़ा गया है और लगभग 25 अनुच्छेदों को हटाया भी गया है।

वर्तमान में संविधान में 22 भाग और गणना की दृष्टि से अनुच्छेदों की संख्या 444 और अनुसूचियों की संख्या 12 हो चुकी है।

भारतीय संविधान की विशालता के कारण ही कुछ लोग इसे वकीलों के स्वर्ग (Lawyer’s Paradise) की उपमा देते हैं।

संविधान की प्रस्तावना –:

भारतीय संविधान में प्रस्तावना का अलग ही महत्व है और यह प्रस्तावना ही संविधान निर्माताओं की प्रेरणा स्रोत थी।

प्रस्तावना संविधान के उद्देश्य लक्ष्य निर्धारित करती है प्रारंभ में प्रस्तावना को संविधान का अंग नहीं माना गया तथा इसमें परिवर्तन के लिए भी कोई प्रावधान नहीं किया गया था।

इसे न्यायालय में परिवर्तित नहीं किया जा सकता जहां संविधान की भाषा संदिग्ध हो वहां प्रस्तावना की सहायता ली जा सकती है।

प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है अथवा यह संविधान का अंग है या नहीं यह सदैव संशय का विषय रहा है।

इस विवाद का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 में किया गया इसके द्वारा प्रस्तावना को संविधान का अंग माना गया तथा निर्णय लिया गया कि इसमें संशोधन भी किया जा सकता है।

42 संविधान संशोधन 1976 द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करते हुए समाजवादी पंथनिरपेक्ष तथा अखंडता शब्द जोड़े गए थे।

प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष तथा समाजवादी संविधान –:

संविधान की प्रस्तावना में प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्र में पंथनिरपेक्ष तथा समाजवादी शब्दों का प्रयोग हुआ है।

इसके माध्यम से भारत में प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्र में पंथनिरपेक्ष और समाजवादी राज्य की स्थापना की गई है।

प्रभुत्व संपन्न राज्य का अर्थ ऐसे राज्य से है जो किसी बाह्य नियंत्रण से पूर्णतया मुक्त है और जिस पर किसी अन्य देश की प्रभुता नहीं है।

जो अपने आंतरिक और विदेशी नीतियों का निर्धारण स्वयं करता है तथा वह किसी अंतरराष्ट्रीय संधि या समझौते को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

भारत लोकतांत्रिक राज्य है क्योंकि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के अंतर्गत सरकार का पूरा अधिकार जनता में निहित रहता है।

ऐसी शासन व्यवस्था के अंतर्गत सरकार की स्थापना जनता द्वारा तथा जनता के लिए की जाती है।

भारत का शासन सीधे जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा संचालित किया जाता है।

पंथनिरपेक्ष शब्द का अर्थ है ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें सरकार का कोई धर्म नहीं होता और वह किसी धर्म को न तो संरक्षण प्रदान करती है और न ही किसी धर्म का या धार्मिक क्रियाकलापों का विरोध करती है।

भारत के सभी धर्मों को सम्मान तथा आदर दिया जाता है और धार्मिक भेदभाव नहीं किया जाता है।

भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्ष को संविधान के प्रारंभ से ही मान्यता दी गई थी लेकिन 1976 में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा पंथनिरपेक्ष शब्द को संविधान की उद्देशिका में शामिल करके धर्मनिरपेक्षता की ओर

अधिक पुष्टि की गई समाजवादी राज्य की स्थापना संविधान का मुख्य उद्देश्य है।

इसकी अभी पुष्टि संविधान की उद्देशिका में समाजवादी शब्द को अंतर स्थापित करके और कई अनुच्छेदों में संशोधन करके तथा कई ने अनुच्छेदों को अंतर स्थापित करके की गई है।

विधि के शासन की स्थापना –:

भारतीय संविधान भारत में विधि के शासन की स्थापना करता है इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 13, 20, 21, 22, 32, 226 और 256 में प्रावधान किया गया है।

भारत में संविधान सर्वोच्च है और इसका कोई भी व्यक्ति या अधिकारी संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकता है।

भारत में विधि के शासन को नैसर्गिक न्याय का भाग माना गया है तथा राज्य के प्रत्येक अंग विधि के शासन से नियमित और नियंत्रित होते हैं।

संसदीय शासन पद्धति की सरकार की स्थापना –:

भारत का संविधान भारत में संसदीय पद्धति की व्यवस्था करता है संसदीय व्यवस्था की सरकार की मुख्य विशेषता यह होती है कि सरकार विधायिका के प्रति उत्तरदाई होती है।

सरकार की दूसरी विशेषता यह है कि कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान जनता का प्रतिनिधि होता है और जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है।

भारत का संविधान संसदीय पद्धति की स्थापना करता है क्योंकि केंद्र की सरकार लोकसभा के प्रति और राज्यों की सरकारें विधानसभाओं के प्रति उत्तरदाई होती हैं और प्रधानमंत्री तथा राज्यों के मुख्यमंत्री लोकसभा के सदस्यों तथा विधानसभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं।

स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना –:

भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था के मुख्य स्तंभों में न्यायपालिका प्रमुख स्तंभ है भारतीय संविधान द्वारा स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की गई है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति वेतन भत्ता तथा पदों से हटाए जाने के संबंध में संविधान में स्पष्ट प्रावधान किया गया है।

स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना देश में होती है और कार्यकारी सरकारी उन पर किसी भी प्रकार का अनुचित दबाव नहीं बना पाती हैं।

मूल अधिकारों की व्यवस्था –:

भारतीय संविधान में मूल अधिकारों को सम्मिलित किया गया है तथा यह अधिकार नागरिकों और गैर नागरिकों दोनों को प्राप्त होते हैं।

भारत के संविधान में शामिल किए गए मूल अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से प्रेरित माने जाते हैं ऐसे अधिकारों का तात्पर्य उन अधिकारों से है जो मनुष्य के लिए नैसर्गिक हूं तथा मनुष्यों को जन्म से ही

प्राप्त हो इन अधिकारों को मानव अधिकार भी कहा जा सकता है।

संविधान के प्रारंभ के समय व्यक्तियों को सात प्रकार के मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे लेकिन 44 वें संविधान संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को निरस्त कर मूल अधिकारों की संख्या तय कर दी गई है।

संविधान में नागरिकों को न केवल मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं बल्कि इन मूल अधिकारों को लागू करने की पर्याप्त व्यवस्था भी की गई है।

राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की संवैधानिक व्यवस्था –:

संविधान के भाग 4 में ऐसे नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख किया गया है जो राज्य के प्रशासन के लिए आवश्यक है और जिनका पालन करना राज्य का कर्तव्य है।

इन नीति निर्देशक तत्वों के माध्यम से देश में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की व्यवस्था की गई है।

यह सिद्धांत राज्यों को नीति बनाते समय ध्यान में रखने वाले आधारभूत सिद्धांतों की व्यवस्था करते हैं उच्चतम न्यायालय ने अपने कई निर्णय में यह व्यवस्था दी है कि कुछ निदेशक तत्व राज्य के लिए मूलभूत हैं और राज्यों द्वारा इनका अनुपालन किया जाना चाहिए।

कठोर और लचीला संविधान का सम्मिश्रण –:

भारत के संविधान में नेता तथा अन्य नेता के लक्षण एक साथ विद्यमान है यह संविधान लचीला जानम इसलिए है कि इसके अधिकतर प्रावधानों को संसद द्वारा साधारण बहुमत से संशोधन किया जा सकता है जबकि कुछ प्रावधानों का संशोधन करना कठिन है और उसके लिए विशेष प्रक्रिया का अनुपालन किया जाना आवश्यक है इस प्रकार भारतीय संविधान तथा अन्य लक्षणों का सम्मिश्रण है।

केंद्र अभिमुख संविधान –:

भारत के संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है लेकिन विशेष परिस्थितियों में जैसे आपातकाल या अन्य स्थितियों में भारत का संविधान एकात्मक लक्षण से युक्त है।

जिसमें केंद्र को राज्यों की शक्तियों पर आधीक्य् प्राप्त है कई मामलों में निर्णय लेने के लिए राज्य पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं है ।

वयस्क मताधिकार की व्यवस्था –:

भारतीय संविधान संघीय शासन की व्यवस्था से युक्त है संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत सरकार का गठन जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है और इन प्रतिनिधियों का चुनाव व्यस्क मताधिकार के माध्यम से किया जाता है।

संविधान के प्रवर्तन के समय मतदान का अधिकार केवल उन्हीं लोगों को था जिन्होंने 21 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है लेकिन संविधान के 61 में संशोधन द्वारा मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है।

अर्थात अब उन लोगों को भी मत देने का अधिकार है जिन्होंने अपनी 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है।

एकल नागरिकता का प्रावधान –:

सामान्यता संघीय संविधान में दोहरी नागरिकता का प्रावधान होता है एक संघ का दूसरा राज्य का जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में है, लेकिन भारतीय संविधान ने एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है।

इसके अंतर्गत भारतीय नागरिकों को मात्र भारत की नागरिकता प्राप्त है यदि वे किसी अन्य देश की नागरिकता ग्रहण करते हैं तो स्वता ही उनकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाती है।

हाल ही में सरकार द्वारा किए गए संवैधानिक संशोधन के पश्चात कुछ विशेष देशों में रह रहे भारतीय नागरिकों के लिए दोहरी नागरिकता का प्रावधान सरकार द्वारा किया गया है।

मूल कर्तव्यों की व्यवस्था –:

भारत के मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों की कोई व्यवस्था नहीं थी लेकिन वर्ष 1978 में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा कुल 10 मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था संविधान में की गई है वर्तमान में इन कर्तव्यों की कुल

संख्या 11 हो चुकी है । हालांकि मौलिक अधिकारों की तरह इन्हें लागू कराने की किसी भी व्यवस्था का अभाव है और यह कर्तव्य नागरिकों को निर्देशित किए गए हैं।

विदेशी संविधान के स्रोत –:

भारतीय संविधान के निर्माण के लिए गठित संविधान सभा द्वारा कई देशों के संविधान ओं का अध्ययन किया गया और उन देशों के संविधान में उपयोगी उपबंध जो भारत के लिए सामयिक थे उन्हें भारतीय परिपेक्ष में

अध्ययन करने के पश्चात सम्मिलित कर लिया गया संविधान के निर्माण के समय लगभग 60 देशों के संविधान के मुख्य तत्वों का संविधान में समावेश हुआ था।

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