मौलिक अधिकार | अंतर, वर्गीकरण, व्याख्या, संवैधानिक उपचार का अधिकार।

मौलिक अधिकार क्या है :–

भारतीय संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 30 तक और फिर 32 से 35 तक कुल 23 अनुच्छेदों में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है।

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का विशद वर्णन किया गया है, इसके बावजूद संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों को परिभाषित नहीं किया गया है।

अतः मौलिक अधिकारों को उन अधिकारों के प्रतिबिंब में परिभाषित किया जा सकता है जो व्यक्ति के बहुमुखी विकास और उन्नति के लिए आवश्यक है।

मूल अधिकार व आधारभूत अधिकार हैं जो व्यक्ति के बौद्धिक, नैतिक, और आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं।

मूल अधिकारों का उद्देश्य भारतीय संविधान में उल्लेखित मूल अधिकारों की निम्न उद्देश्य है |

मूल अधिकारों द्वारा उन मूल्यों का संरक्षण करना जो एक स्वतंत्र समाज के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य है।

ऐसी सरकार के गठन को प्रेरित करना जिनका उद्देश्य व्यक्तियों के हितों में वृद्धि करना हो।

इन अधिकारों द्वारा उन मूल्यों का संरक्षण करना जो एक स्वतंत्र समाज के लिए अनिवार्य है।

संविधान द्वारा राज्य की शक्तियों पर संवैधानिक नियंत्रण जिससे राज्य और सरकारें नागरिकों की स्वतंत्रता के विरुद्ध अपनी शक्तियों का प्रयोग ना कर सके।

लोकतांत्रिक राज्य में नागरिकों के विकास के अधिकतम अवसर प्रदान करना |

सामान्य अधिकार और मौलिक अधिकार में अंतर :–

हम सभी के मन में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि मानव के रूप में, किसी देश के नागरिक के रूप में, या फिर किसी संगठन के सदस्य के रूप में हम लोगों के कई अधिकार हैं, तो सामान्य अधिकार और मौलिक अधिकारों में

क्या अंतर है। तो विधिक अधिकार या सामान्य अधिकार और मौलिक अधिकार के अंतर को निम्न तथ्यों के माध्यम से समझा जा सकता है |

मूल अधिकार संविधान द्वारा प्रदान किए गए हैं जबकि विधिक अधिकार अधिनियम द्वारा प्रदान किए जाते हैं।

विधिक अधिकार देश की विधि द्वारा संरक्षित और लागू किए जाते हैं सामान्य विधिक अधिकार है उपभोक्ता अधिकार शेयरधारकों के अधिकार इत्यादि।

मूल अधिकार समाप्त या कम नहीं किए जा सकते जबकि विधिक अधिकार साधारण विधाई प्रक्रिया द्वारा बदले समाप्त या कम किए जा सकते हैं।

मूल अधिकार उच्चतम और उच्च न्यायालयों द्वारा लागू किए जाते हैं जबकि विधिक अधिकार सामान्य न्यायालयों द्वारा परिवर्तित या लागू किए जाते हैं ।

मूल अधिकारों का उल्लंघन कुछ अपवादों को छोड़कर केवल राज्य द्वारा ही किया जा सकता है जबकि विधिक अधिकारों का उल्लंघन सामान्य व्यक्ति या विधिक व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है।

मौलिक अधिकार विधिक अधिकारों से उच्च होता है।

मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण :–

अनुच्छेद 15 16 19 29 और 30 केवल भारतीय नागरिकों के लिए ही है |

अनुच्छेद 14 20 21 23 24 25 26 27 सभी भारतीय हो या विदेशी सबके लिए लागू होता है |

अनुच्छेद 15 16 18 20 21 22 27 और 28 नकारात्मक है |

अनुच्छेद 14 17 19 21 23 और 24 विधायन के लिए अनिवार्य हैं |

अनुच्छेद 19 और 21 व्यापक हैं |

मूल अधिकार (Fundamental Right):–(6 मौलिक अधिकार कौन-कौन से हैं)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 32 तक नागरिकों को दिए गए अधिकारों की विवेचना की गई है |

1) समानता का अधिकार (Right to Equality) अनुच्छेद 14 से 18 तक |

2) स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) अनुच्छेद 19 से 22 तक |

3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation) 23 से 24 तक |

4) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) अनुच्छेद 25 से 28 तक |

5) संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Right) अनुच्छेद 29 से 30 तक |

6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies) अनुच्छेद 32 से 35 तक |

जब भारतीय संविधान लागू हुआ (26 jan 1950 ) उस समय संविधान में कुल 7 मौलिक अधिकारों का उल्लेख था वर्ष 1978 में हुए 44 वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 31 में वर्णित संपत्ति के अधिकार को

निलंबित या रद्द कर दिया गया और अब यह कानूनी अधिकार मात्र है जिसे संविधान के भाग 12 में अनुच्छेद 300 (A) में प्रतिस्थापित किया गया है |

मौलिक अधिकारों की व्याख्या –:

मौलिक अधिकारों का उल्लेख अनुच्छेद 12 से 35 के मध्य किया गया है जिसमें से अनुच्छेद 12 और 13 अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसके बारे में पहले जानने का प्रयास करते हैं |

अनुच्छेद 12

जिस स्थान पर मौलिक अधिकार लागू होंगे उस स्थान (राज्य) को परिभाषित किया गया है।

यह वह सीमा है जहां भारतीय संसद द्वारा पारित कानून लागू होंगे अर्थात भारत की राजनीतिक सीमा।

अनुच्छेद 13

यह अनुच्छेद न्यायालयों को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति देता है ।

इस अनुच्छेद के अंतर्गत उच्च न्यायालय(High court) और उच्चतम न्यायालय (Supreme court)राज्य द्वारा पारित किसी भी ऐसे अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर सकता है जो संविधान में वर्णित मूल अधिकारों का उल्लंघन करता हो।

मूल अधिकारों का हनन करने वाले कानूनों को शून्य घोषित करने का अधिकार उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 32 और उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 के अंतर्गत प्राप्त है।

1) समानता का अधिकार (Right to Equality) अनुच्छेद 14 से 18 तक |

अनुच्छेद 14 से 18 द्वारा संविधान व्यक्ति को समता का अधिकार प्रदान करता है, न्यायिक निर्णय के अनुसार समता का अधिकार भारतीय संविधान का मूल ढांचा है।

सभी व्यक्तियों को विधि के समक्ष समानता राज्य के अधीन सेवाओं में अवसर और सामाजिक एकता प्रदान करने की व्यवस्था की गई है, अधिकार सभी नागरिकों और गैर नागरिकों के लिए उपलब्ध है।

अनुच्छेद 14 इस अनुच्छेद के अनुसार ‘राज्य’ भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। (नागरिक और गैर नागरिक सभी के लिए है)।

अनुच्छेद 15 राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद भाव नहीं करेगा।

अनुच्छेद 16-– राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी।

अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता (छुआछूत) के उन्मूलन और किसी भी प्रकार से प्रयोग को प्रतिषेध करता है, और यह एक दंडनीय अपराध है।

अनुच्छेद 18 राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई भी नागरिक किसी विदेशी राज्य से भेंट उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।

अपवाद :-

समता के अधिकार के अपवाद भी भारतीय संविधान में निहित है जो इन अधिकारों का अल्पीकरण करते हैं जो निम्न है।

I) राष्ट्रपति, राज्यपाल, विदेशी राजनयिकों, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, सांसद, तथा विधान मंडलों के सदस्यों को कुछ विशेषाधिकार दिए गए हैं।

ii) विभिन्न वर्गों के संबंध में अलग-अलग कानून बनाए जा सकते हैं जैसे आयु लिंग भौगोलिक या क्षेत्रीय कारोबार या जीविका की प्रकृति प्राधिकार के स्रोत अपराध तथा अपराधी की प्रकृति और कर निर्धारण के अधिकार पर व्यक्तियों के बीच विभेद किया जा सकता है।

अनुछेद 15 के अपवाद

i) अनु. 15 (4) के अनुसार सरकारी सेवा में आरक्षण का प्रावधान किया गया है जो अनुच्छेद 15 का अपवाद है।

ii) अनुछेद 15 (3) राज्य के स्त्रियों तथा बच्चों के लिए विशेष उपबंध करने की अनुमति राज्य को देता है।

अनुछेद 16 के अपवाद

i) संसद कानून बना कर किसी राज्य या स्थानीय प्राधिकारी के अधीन आने वाले किसी वर्ग या वर्गों के पद पर नियोजन या नियुक्ति के संबंध में निवास विषयक शर्तें लगा सकती है।

ii) अनुछेद 16(4) राज्य को सरकारी सेवा में पिछड़े वर्गों के लिए पदों में आरक्षण करने की शक्ति प्रदान करता है जो अनुछेद 16 का अपवाद है।

अनुछेद 18 के अपवाद

अनुछेद 18 में उपाधियों का अंत होने के बावजूद भारत रत्न, पद विभूषण, पद्म श्री इत्यादि उपाधिया लगातार वितरित जा रही हैं, जो अनुछेद 18 के मंतव्य के विपरीत है।

स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom)–:

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 में स्वतंत्रता के अधिकारों का वर्णन किया गया है यह अधिकार भारत के नागरिकों को स्वतंत्रता के सकारात्मक अधिकार देते हैं जो निम्न है |

संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में नागरिकों को मूल रूप से 7 स्वतंत्रता प्रदान की गई थी। 44 वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा संपत्ति के अधिकार को कानूनी अधिकार बना दिया गया है अब वर्तमान में यह 6 स्वतंत्रताए शेष है।

i) वाक् (बोलने) की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।

ii) शांतिपूर्वक और निरायुध (without arms) सम्मेलन करने की स्वतंत्रता।

iii) संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता।

iv) भारत के राज्य क्षेत्र में कहीं भी अवाध (बिना रोक-टोक के) घूमने की स्वतंत्रता।

v) भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता।

vi) कोई भी पेशा उपजीविका व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता।

अनुछेद 20

किसी भी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसने अपराध के समय में लागू किसी कानून का उल्लंघन न किया हो साथ ही व्यक्ति के अपराध के लिए उससे अधिक दंड नहीं दिया जा सकता जो उस अपराध के लिए पूर्व निर्धारित है।

अनुछेद 21

अनुच्छेद के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।

अनुछेद 21(क)

वर्ष 2002 में संविधान के 86 वें संशोधन द्वारा राज्य को यह कर्तव्य सौंपा गया है कि वह 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बालकों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा।

अनुछेद 22

नागरिकों तथा गैर नागरिकों की गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षक।

अपवाद :–

i) मूल संविधान में जम्मू कश्मीर राज्य में अचल संपत्ति खरीदने और बसने का अधिकार नहीं था। जो अब समाप्त कर दिया गया है।

ii) संगम बनाने का अधिकार भी संपूर्ण नहीं है देश की प्रभुता अखंडता और लोक व्यवस्था या सदाचार को बनाए रखने के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। वेश्याओं और सैनिकों को संघ बनाने के अधिकार की स्वतंत्रता नहीं है।

iii) कुछ विशिष्ट जनजातीय क्षेत्रों में स्वतंत्रता पूर्वक भ्रमण करने पर रोक लगाई गई है। जैसे अंडमान निकोबार दीप के कुछ दीप, छत्तीसगढ़ के बस्तर के जनजातीय क्षेत्र पूर्वोत्तर भारत के कुछ राज्यों में आदि।

iv) गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण का अधिकार विदेशी शत्रु देश के नागरिकों को छोड़कर।

शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation) :–

संविधान में समाज के दुर्बल वर्गों को शोषण और पीड़ा से बचाने के लिए अनुच्छेद 23 और 24 में प्रावधान किया गया है।

अनुछेद 23

मानव के दुर्व्यपार बेगार और इसी प्रकार के अन्य बलात श्रम को प्रतिबंधित किया गया है। इसका उल्लंघन दंडनीय अपराध है।

अनुछेद 24

14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बालक को कारखाने या खदान या अन्य किसी खतरनाक उद्योगों में काम पर नहीं लगाया जा सकता है।

अपवाद :–

राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा लागू करने का अधिकार प्राप्त है। जो अनुच्छेद 23 के विपरीत है।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) :–

संविधान पंथनिरपेक्षता की अवधारणा के अनुरूप प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने और उसकी अभिवृद्धि का प्रयास करने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है अनुच्छेद 25 से 28 तक।

अनुछेद 25

सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म को बिना किसी बाधा के मानने आचरण करने और प्रचार करने का समान अधिकार है |

अनुछेद 26

धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को धार्मिक क्रियाकलापों के प्रबंधन की स्वतंत्रता दी गई है। इसके अंतर्गत निम्न अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त है।

i) धार्मिक और (charitable) प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण करना।

ii) अपने धर्म विषय कार्यों का प्रबंधन करना |

iii) धार्मिक कार्यों के लिए चल और अचल संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार।

iv) अर्जित संपत्तियों का विधि के अनुसार संचालन करने का अधिकार।

अनुछेद 27

व्यक्ति अथवा संस्था को ऐसा कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा जिसकी आय को किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय की वृद्धि के लिए व्यय किया गया हो।

अनुछेद 28

राज्य निधि से पूर्णत पोषित और संचालित किसी शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है।

अपवाद :–

i) अनुच्छेद 25(2) के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता होने के बावजूद राज्य धार्मिक आचरण के संबंध किसी आर्थिक वित्तीय राजनीतिक या अन्य सांसारिक क्रियाकलापों के विनिमय या निरबंधन के संबंध में कानून बना सकता है।

ii) राज्य द्वारा लोक व्यवस्था सदाचार और स्वास्थ्य के आधार पर धार्मिक कार्यों के प्रबंधन की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Right) :–

भारत की संस्कृतिक अनेकता में यह अधिकार महत्वपूर्ण हो जाते हैं जिसका उल्लेख अनुच्छेद 29 और 30 में किया गया है।

अनुछेद 29

भाषा लिपि या संस्कृति दृष्टि से अल्पसंख्यक प्रत्येक नागरिक को अपनी विशेष भाषा लिपी और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होगा राज्य से सहायता प्राप्त और पोषित किसी भी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूल, वंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता है।

अनुछेद 30

शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार।

अनुछेद 30 (1) के अधीन धर्म या भाषा के आधार पर सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रूचि की शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने एवं उसका प्रशासन करने का अधिकार है ।

अनुछेद 30 (2) शिक्षण संस्थाओं को सहायता देने में राज्य इस आधार पर भेद नहीं कर सकता कि वे धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग का प्रबंधन करते हैं।

संवैधानिक उपचार का अधिकार (Right to Constitutional Remedies) :–

भारतीय संविधान में मूल अधिकारों का व्यापक उल्लेख किया गया है। साथ ही इन अधिकारों को लागू करने के लिए उपचारों या उपायों को भी सम्मिलित किया गया है। अनुच्छेद 32 से 35 तक ।

संविधान के भाग 3 द्वारा नागरिकों को दिए गए मूल अधिकारों को लागू करने के लिए अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय(Supreme Court) और अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालयों (High Court) मेंरिट याचिका दाखिल की जा सकती है।

मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय को निम्नलिखित रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है।

1) बंदी प्रत्यक्षीकरण ( Habeaus Carpus )

2) परमादेश ( Mandamus )

3) प्रतिषेध ( Prohibition )

4) अधिकार पृच्छा ( Quo-wairanto)

5) उत्प्रेषण ( Certiorari )

1) बंदी प्रत्यक्षीकरण ( Habeaus Carpus )

इस आदेश के माध्यम से न्यायालय बंदी बनाए गए किसी व्यक्ति को अपने सामने उपस्थित करने का आदेश देता है साथ ही बंदी बनाए जाने का कारण वैध और उचित नहीं होने पर बंदी बनाए गए व्यक्ति को मुक्त करने का आदेश दे सकता है।

2) परमादेश ( Mandamus )

परमादेश का अर्थ है हम आदेश देते हैं यह किसी सार्वजनिक अथवा अर्ध सार्वजनिक संस्था के लिए तब जारी किया जा सकता है, जब वह संस्था अपने वैध कर्तव्यों का पालन नहीं कर रही हो।

3) प्रतिषेध ( Prohibition )

यह रिट किसी उच्च न्यायालय द्वारा किसी निम्न न्यायालय को अपने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर कार्य करने से रोकता है। यह केवल न्यायिक अथवा अर्ध न्यायिक न्यायाधिकरणो के विरुद्ध जारी किया जा सकता है।

4) अधिकार पृच्छा ( Quo-wairanto)

उस व्यक्ति के विरुद्ध जारी किया जा सकता है जिसने अवैध तरीके से लोक पद को धारण किया है।

5) उत्प्रेषण ( Certiorari )

यह रिट न्यायालयों को जारी की जा सकती है। इसके माध्यम से अधीनस्थ न्यायालयों को यह निर्देश दिया जाता है कि वे अपने पास लंबित मुकदमों के निर्णयन के लिए उसे वरिष्ठ न्यायालयों को भेजें।

मूल अधिकार से संबंधित संवैधानिक सिद्धांत :–

संविधान के अनुछेद 13 में मूल अधिकार से संबंधित निम्न सिद्धांतो को सम्मिलित किया जाता है |

अनुच्छेद 13 मूल अधिकारों का आधार स्तंभ है इस अनुच्छेद के अनुसार इस संविधान के लागू होने से ठीक पहले भारत के राज्य क्षेत्र में लागू सभी कानून या विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वह इस भाग के उपबंध से असंगत या अलग है।

अनुच्छेद 13 (2) के अनुसार राज्य ऐसी कोई विधि (कानून) नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन करती है।या कम करती हो। और इस भाग के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।

अनुच्छेद 13 (3) (क) विधि के अंतर्गत भारत में लागू कोई अध्यादेश आदेश उपविधि नियम विनियम अधिसूचना रूढ़ि या प्रथा है।

अनुच्छेद 13 (3) (ख) के अनुसार लागू विधि के अंतर्गत भारत के संपूर्ण क्षेत्र में किसी भी विधानमंडल या समर्थ प्राधिकारी द्वारा इस संविधान के लागू होने से पहले पारित या बनाई गई विधि है जो पहले निरसित नहीं की गई है चाहे ऐसा कोई विधि या उसका कोई भाग इस समय पूर्णतया विशिष्ट क्षेत्रों में लागू नहीं है।

अनुच्छेद 13 (4) के अनुसार इस अनुच्छेद के सभी प्रावधान अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए संविधान संशोधन पर लागू नहीं होगी मूल अधिकारों से संबंधित निम्न सिद्धांत दिए गए हैं।

न्यायिक पुनरावलोकन :–

अनुच्छेद 13 के अंतर्गत उच्च और सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि राज्य द्वारा पारित किसी भी अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर सकती है जो संविधान में वर्णित मूल अधिकारों का उल्लंघन करती हो।

भावी प्रवर्तन का सिद्धांत :–

मौलिक अधिकार का प्रभाव भूतलक्षी (Retrospective) नहीं है बल्कि इसका प्रभाव भावी है। भारतीय संविधान के लागू होने से पूर्व व्यवहारित विधियों पर मौलिक अधिकारों का प्रभाव इस तिथि से होगा जिस तिथि से इन्हें लागू किया गया है |

पृथक्करण का सिद्धांत :–

राज्य द्वारा निर्मित किसी विधि का कोई भाग मूल अधिकार से असंगत है या मूल अधिकारों के विरुद्ध है तो वह पूर्णतया असंवैधानिक और शून्य घोषित नहीं किया जाएगा उस विधि का वह भाग ही शून्य घोषित किया जाएगा जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करता हो लेकिन साथ ही मूल अधिकारों से असंगत या विरुद्ध होने वाला भाग पृथक्करण नहीं है तो पूर्व विधि को ही शून्य घोषित किया जा सकता है।

आच्छादन का सिद्धांत :–

संविधान के लागू होने के पूर्व भारत में लागू विधियां जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करती हैं या उसके विरुद्ध हो, समाप्त नहीं होंगी बल्कि निष्क्रिय हो जाती है और ऐसी विधियां मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित हो जाती है।

अधित्यजन का सिद्धांत :–

मूल अधिकार के संबंध में दिए गए सिद्धांतों में सबसे महत्वपूर्ण अभित्यजन का सिद्धांत है, जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति जिसे मूल अधिकार प्राप्त है वह इस का परित्याग नहीं कर सकता, वस्तुतः मूल अधिकार संविधान द्वारा राज्य पर लगाए गए कर्तव्य है |

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